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________________ भाषा और साहित्य ] विश्व भाषा-प्रवाह [३१ रूप सत् को प्रारम्भ में रखा, इस प्रकार जोड़-तोड़ करने से 'सत्य' शब्द निष्पन्न हुआ । यह सहजता नहीं है। "क्रिया का अस्तित्व या प्रवृत्ति द्रव्यपूर्वक है अर्थात् द्रव्य क्रिया से पूर्व होता है। द्रव्य के स्पन्दन, आन्दोलन या हलन-चलन की अभिव्यंजना के हेतु क्रिया अस्तित्व से आती है। ऐसी स्थिति में बाद में होने वाली क्रिया के आधार पर पहले होने वाले द्रव्य का नाम नहीं दिया जा सकता। यहां 'अश्व' का उदाहरण ले सकते हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार शीघ्र दौड़ने के कारण एक प्राणी विशेष 'अश्व' शब्द से संज्ञित होता, तो यह संज्ञा उसकी ( शीघ्र दौड़ना रूप ) क्रिया के देखने के बाद उसे दी जाती, पर, वस्तु-स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अश्वाभिध प्राणी के उत्पन्न होते ही, जब वह चलने में भी अक्षम होता है, यह संज्ञा उसे प्राप्त है। ऐसी स्थिति में उसको व्युत्पत्ति की संगति घटित नहीं होती। शब्दों की निष्पत्ति फलतः भाषा की संरचना में धातु-सिद्धान्त का कितना योग है, इस पर यह सहस्राब्दियों पूर्व के तर्क-वितर्क का एक उदाहरण है। इससे जहाँ एक ओर भारत के मनीषियों के आलोचनात्मक चिन्तन का परिचय मिलता है, वहां दूसरी ओर भाषा और शब्द जैसे विषयों में, जिनकी गहराई में जाने में लोग विशेष रुचि नहीं लेते, उनके तलस्पर्शी अवगाहन का एक स्पृहणीय उद्योग दृष्टिगोचर होता है। १ तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च । न सर्वाणीति गार्योवैयाकर णानाञ्चैके। तद्यत्र स्वर संस्कारौ समर्थौ प्रादेशिकेन गुणेनान्वितौ स्याताम् । संविज्ञानानि तानि, यथा गौरश्वः पुरुषो हस्तीति ।। अथ चेत् सर्वाण्याख्यातजानि नामानि स्युर्यः कश्चनतत्कर्म कुर्यात्सर्व तत्सत्वं तथाचक्षीरन् । यः कश्चाध्वानमश्नुवीताश्वः स वचनीयः स्यात् यत्किंचितृन्धात्तणं तत् । अथापि चेत्सर्वाण्याख्यातजानि नामानि स्युर्यावद्भिभर्विः सम्प्रयुज्येत तावद्भ्यो नामधेय प्रतिलम्भः स्यात् । तैत्रवं स्थूणा, दरशयावांजनी च स्मात् । अथापि य एषां न्यायवान्कार्भनामिकः संस्कारो यथा चापि प्रतीतार्थानि स्युस्तैथतान्याचक्षीरन् । पुरुषं पुरिशय इत्यावचक्षोरन्, अटेत्यश्वं, तर्दनमिति तृणम् । अथापि निष्पन्नेऽभिव्याहारेऽभिविचारयन्ति। प्रथनात्पृथिवित्याहुः क एनामप्रथयिष्यत्किमाधारश्चेति। अथानन्वितेऽर्थे प्रादेशिके विकारे पदेभ्यः पदेतरार्धान्संचस्कार शाकटायनः एते कारितंच यकारादिञ्चान्तकरणमस्तेः शुद्ध च सकारादिं च । अथापि सत्वपूर्वो भात इत्याहुः। अपरस्माद् भावात्पूर्वस्य प्रदेशो नोपपद्यत इति । -निरुक्त; पाद ४ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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