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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय
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शंका-समाधान की शैली में टीकाकार आगे उल्लेख करते हैं : "यहां ग्रन्थ-कर्ता का प्ररूपण क्यों किया जा रहा है ? शास्त्र का प्रामाण्य दिखलाने के लिए, क्योंकि वक्ता के प्रामाण्य से बचन का प्रामाण्य सिद्ध होता है, ऐसा न्यास है ।"
षट्खण्डागम के अहंद-वारणी से सीधे सम्बद्ध होने का भाव व्यक्त करने की दृष्टि से आचार्य वीरसेन ने इस प्रकार की शब्दावलि में विश्लेषण किया है, जो स्पष्ट है ।
षट्खशडागम की पूजा : श्रुतपंचमी का पर्व
भूतबलि ने जब इस श्रागम-ग्रन्थ के छहों खण्डों की रचना सम्पन्न की, ऐसा माना जाता है, तब सारे संघ में असीम हर्ष छा गया । धवलाकार ने ग्रन्थ-समापन के सन्दर्भ में पीछे किये गये उल्लेख के अतिरिक्त और कोई विशेष चर्चा नहीं की है। पर, इन्द्रनन्दी ने अताबतार में इस सम्बन्ध में एक विशेष प्रयोजन का उल्लेख किया है । वह इस प्रकार है : "आचार्य भूतबलि ने षट्खण्डागम को पुस्तकारूढ़ कर ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित पुस्तकोपकरण के माध्यम से श्रुत की यथाविधि पूजा की । जिससे वह तिथि श्रुत पंचमी के नाम से विख्यात हुई । श्रुत-पूजा करते हैं ।" "
आज भी जैन उस दिन
भूतबलि ने अपना ग्रन्थ अपने अन्तेवासी जिनपालित के हाथ पुष्पदन्त के पास भेजा । पुष्पदन्त अपना अभीप्सित पूरा हुआ जान बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने भी संघ सहित ग्रन्थ की सोत्साह पूजा की ।
इस घटना से सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम की रचना की सम्पन्नता तक आचार्य पुष्पदन्त, जिनके अल्पायु होने का पीछे संकेत किया गया है, जीवित थे । साथ-ही-साथ
१. किमर्थं कर्ता प्ररूप्यते ? शास्त्रस्य प्रामाण्यप्रदर्शनार्थम् । 'ववतृप्रामाण्याद् वचनप्रामायम्' इति न्यायात् ।
- षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७२
२. ज्येष्ठसितपक्ष पञ्चम्यां चातुर्वर्ण्य संघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैव्यं धात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥ १४३ ॥ श्रतपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां अतपूजां कुर्वते जनाः ॥ १४४ ॥
- इन्द्रनन्दिन् तावतार
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