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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका धामय । ६३९ बढ़ाई जा सकती है, किन्तु प्राचीन आचार्यों के जो शब्द ग्रन्थों में ग्रथित हैं, उनके एक बार नष्ट हो जाने पर उनका पुनरुद्धार सर्वथा असम्भव है। क्या लाखों-करोड़ों रुपया खर्च करके भी पूरे द्वादशांग श्रुत का उद्धार किया जा सकता है ? कभी नहीं। इसी कारण सजीव देश, राष्ट्र और समाज अपने पूर्व साहित्य के एक-एक टुकड़े पर अपनी सारी शक्ति लगाकर उसकी रक्षा करते हैं । यह ख्याल रहे कि जिन उपायों से अभी तक ग्रन्थरक्षा होती थी, वे उपाय अब कार्यकारी नहीं । संहारक शक्ति ने आजकल भीषण रूप धारण कर लिया है । आजकल साहित्य-रक्षा का इससे बढ़कर दूसरा कोई उपाय नहीं कि ग्रन्थों की हजारों प्रतियां छपाकर सर्वत्र फैला दी जायें ताकि किसी भी अवस्था में कहीं-नकहीं उनका अस्तित्व बना ही रहेगा। यह हमारी श्रुत-भक्ति का अत्यन्त बुद्धिहीन स्वरूप है, जो हम ज्ञान के इन उत्तम संग्रहों की ओर इतने उदासीन हैं और उनके सर्वथा विनाश की जोखम लिए चुपचाप बैठे हैं।" ___ सम्पादन-कार्य में डा० जैन को दिगम्बर समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री तथा पं० हीरालाल शास्त्री न्यायतीर्थ का असाधारण सहयोग तथा साहाय्य रहा । इसी प्रकार संशोधन-कार्य में प्राकृत एवं जैन वाङमय के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान् डॉ० ए० एन० उपाध्ये तथा व्याख्यान-वाचस्पति पं० देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्री जैसे मनीषियों का साहाप्य रहा। প্রথম ধাপ ঝা সন্ধান : হ্ম জন্ম সনাক্কথা __ मानव एक विचित्र प्राणी है। वह कब क्या सोचे, कैसा करे—यह सब रहस्यमय है। जो वह माज सोचता है, कल भी वैसा ही सोचेगा अथवा उसका चिन्तन कोई दूसरी करवट लेगा, निश्चय की भाषा में कुछ कहा नहीं जा सकता। षट्खण्डागम के प्रथम भाग के प्रकाशन के बाद जन-मानस में एक दूसरा ही चिन्तन स्पन्दित हुआ । एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ को हिन्दी अनुवाद के साथ लोगों ने देखा और उन्होंने पहले-पहल यह अनुभव किया कि वे इस ग्रन्थ को पढ़ भी सकते हैं, जिसके दर्शनों का सौभाग्य पाना भी कभी कठिन था। अनेक सुज्ञ जन, जो इस ग्रन्थ के प्रकाशन की प्रतीक्षा में थे, अत्यधिक प्रसन्न हुए ही, उन लोगों का मानस भी बदला, जो कभी इन ग्रन्थों के प्रकाशन को अशुभ कार्य मानते थे। पहले-पहल उन्होंने ऐसे ग्रन्थों के प्रकाशन की उपयोगिता का महत्व प्रांका। १. षट्खण्डागम, खग १, माग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ० ६-७ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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