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________________ ६४.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड । ___चिन्तन में मोड़ आना स्वाभाविक था। क्योंकि उपयोगिता का यथार्थ दर्शन मानव को अति-भावुकता से हटाकर प्रज्ञा की भूमि में ले जाता है। यहां कुछ ऐसा ही हुआ । मूडबिद्री के भट्टारक, पंच तथा अन्य प्रमुख व्यक्ति भी इससे बड़े प्रसन्न हुए । डा० जैन ने इस सम्बन्ध में जो कुछ उल्लेख किया है, उससे वहां के लोगों की मनोवृत्ति में सहसा कितना भारी परिवर्तन आ गया, इसका स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है। वे लिखते हैं : "श्री धवल सिद्धान्त प्रथम विभाग के प्रकाशित होने से, हमें जो प्राशा थी, उसकी सोलहों पाने पूर्ति हुई । हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष और संतोष है कि मूडबिद्री मठ को भेंट की हुई शास्त्राकार और पुस्तकाकार प्रतियों के वहां पहुंचने पर उन्हें विमान में विराजमान करके जुलूस निकाला गया, श्रुतपूजन किया गया और सभा की गई, जिसमें वहां के प्रमुख सज्जनों और विद्वानों द्वारा हमारी संशोधन, सम्पादन और प्रकाशन-व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की गई और यह मत प्रगट किया गया कि आगे इस सम्पादन-कार्य में वहां की मूल प्रति से मिलाने की सुविधा दी जानी चाहिये, नहीं तो ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होगा । यह सभा मूडबिद्री मठ के भट्टारक श्री चारुकीति पण्डिताचार्यवयं के ही सभापतित्व में हुई थी। उस समारम्भ के पश्चात् स्वयं भट्टारकजी ने अपना अभिप्राय हमें सूचित किया और प्रति मिलाने की व्यवस्थादि के लिए हमें वहां आने के लिए पामन्त्रित किया।"1 प्रथम भाग का प्रकाशन तो हो ही चुका था, बागे के प्रकाशन की प्रेस-कॉपियों को मूडबिद्री की मूल प्रति से मिलाने की भी स्वीकृति मिल गई। महाधवल (महाबंध) के प्रकाशनार्य प्रतिलिपि कराये जाने की स्वीकृति और प्राप्त हो गई। भरविद्री की प्रतियां भवला की संस्कृत-कन्नड़-मिश्रित प्रशस्ति, श्रमणवेलगोला के शिलालेख आदि के सम्यक् परिशीलन से ऐसा परिज्ञात होता है कि देमियक्क, देमति, देयवती या देवमति नामक सद्धर्मनिष्ठ महिला, जो श्रेष्ठिराज चामुण्ड की पत्नी, बूचिराज की बहिन, भुजबलिगंगपेर्माडिदेव की भुमा थी, ने अपने श्रत-पंचमी के व्रतोद्यापन के उपलक्ष में ये ताड़पत्रीय सिद्धान्त-ग्रन्थ अपने गुरु शुभचन्द्रदेव को अर्पित किये थे। धवला की प्रशस्ति तथा श्रमणबेलगोला के शिलालेख के अनुसार शुभचन्द्रदेव का देहावसान शक संवत् १०४५ 1. पदसण्डागम, खण १, भाग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ०२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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