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आगम और fafपटक : एक अनुशीलन
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तैयार नहीं थे। ऐसे समय में श्रीमान् सिंघई पन्नालालजी ने व अमरावती पंचायत से सत्साहस करके अपने यहां की प्रतियों की सदुपयोग करने की अनुमति दे दी ।" 1
अमरावती की प्रतिलिपि से प्रस- कॉपी तैयार की गई । अमरावती की प्रति सागरस्थित प्रति की प्रतिलिपि है । सागर की प्रति पं० सीताराम शास्त्री के हाथ की है ।
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पाठ-संशोधन में धारा तथा कांरजा की प्रतियों के उपयोग की सुविधा प्राप्त हो गई ये दोनों प्रतियां पं० सीताराम शास्त्री के हाथ की हैं । मूडबिद्री की प्रति से मिलाने का तो तंब अवसर ही कहां था । वहां वाले तो उनमें से थे, जिनकी दृष्टि से यह कार्य धर्म का प्रतिगामी था । इस सन्दर्भ में डा० जैन ने अपनी तथा अपने साथियों की मनोव्यथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है : "जिन प्रतियों को लेकर हम संशोधन करने बैठे थे, वे त्रुटियों और स्खलनों से परिपूर्ण हैं । हमें उनके एक-एक शब्द के संशोधनार्थं न जाने कितनी मानसिक कसरतें करनी पड़ी हैं और कितने दिनों तक रात के दो-दो बजे तक बैठकर अपने खून को सुखाना पड़ा है । फिर भी हमने जो संशोधन किया, उसका सोलहों ने यह भी विश्वास नहीं कि वे ही आचायं रचित शब्द हैं । और यह भी सब करना पड़ा, जब कि मूडबिद्री की आदर्श प्रतियों के दृष्टिपात मात्र से सम्भवतः उन कठिन स्थलों का निर्विबाद रूप से निर्णय हो सकता था । हमें उस मनुष्य के जीवन का-सा अनुभव हुआ, जिसके पिता की अपार कमाई पर कोई ताला लगाकर बैठ जाय और वह स्वयं एक-एक टुकड़े के लिए दर-दर भीख मांगता फिरे। इससे जो हानि हुई, वह किसकी ? जितना समय और परिश्रम इसके संशोधन में खर्च हो रहा है, उससे मूल प्रतियों की उपलब्धि में न जाने कितनी साहित्य-सेवा हो सकती थी और समाज का उपकार किया जा सकता था । ऐसे ही समय और शक्ति के अपव्यय से समाज की गति रुकती है । इस मन्द गति से न जाने कितना समय इन ग्रन्थों के उद्धार में खर्च होगा। यह समय साहित्य, कला और संस्कृति के लिए बड़े संकट का है । राजनैतिक विप्लव से हजारों वर्षों की सांस्कृतिक सम्पत्ति कदाचित् मिनटों में भस्मसात हो सकती है । देव रक्षा करे, किन्तु यदि ऐसा ही संकट यहां आ गया तो ये द्वादशांग - वारगी के अवशिष्ट रूप फिर कहां रहेंगे ? हस्श, चीन आदि देशों के उदाहरण हमारे सम्मुख हैं। प्राचीन प्रतिमाएं खण्डित हो जाने पर नई कभी भी प्रतिष्ठित हो सकती है, पुराने मंन्दिर जीणं होकर गिर जाने पर नये कभी भी निर्माण कराकर खड़े किये जा सकते हैं । धर्म के अनुयायियों की संख्या कम होने पर कदाचित् प्रचार द्वारा
१. पण, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ० २
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