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________________ १७४ ] आगम ओर त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ ____ फ्रेंक ने एक बात और कही है, जो बड़ी विचित्र प्रतीत होती है। उनके अनुसार आज जिसे पालि कहा जाता है, जिसमें त्रिपिटक और तदुपजीवी साहित्य रचा हुआ है, वह भाषा साहित्यिक पालि है। बुद्धदेव के समय में भारतवर्ष में बोली जाने वाली आर्यभाषाओं को फंक ने पालि कहा है। फ्रंक का यह मत समीचीनी और युक्ति सगत नहीं लगता। भगवान् बद्ध के समय भारतवर्ष में जो आय-भाषाए दैनन्दिन व्यवहार में प्रचलित थीं, उनके विषय में नई स्थापना की आवश्यकता नहीं है । वे तो अपने-अपने प्रदेशों के नामों के अनुरूप भिन्न-भिन्न नाम पाली प्राकृतों के रूप में सुविदित हैं ही। उन सबके लिए पालि जैसा एक नाम कल्पित करना सर्वथा असंगत लगता है। त्रिपिटक की भाषा के लिए पालि शब्द के साथ साहित्यिक शब्द जोड़ना भ्रामक जैसा है। डा. ओल्डन वर्ग और ई• मूलर पालि को कलिंग से सिंहल पहुंचने का उल्लेख करते हैं, वह भी केवल कल्पना मात्र प्रतीत होता है। यदि सिंहल को भाषाओं के साथ भारत के पूर्वी प्रदेश तथा पश्चिमी प्रदेश की भाषाओं की तुलना की जाए, तो सिंहल की भाषाओं का पूर्वी भाषाओं के साथ नहीं, प्रत्युत पश्चिमी भाषाओं के साथ नेकट्य प्रतीत होता है। पालि के मूल आधार के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा तरह-तरह से ऊहापोह किया गया है। मागधी को पालि का आधार मानने में विभिन्न विद्वानों के अपने विशेष चिन्तन हैं। भिक्षु सिद्धार्थ, भिक्ष जगदीश काश्यप, जेम्स एल्विस, चाइल्डसं, विडिश, विण्टरनिरज, ग्रियसन तथा गायगय आदि विद्वानों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से मागधी को पालि का स्रोत स्वीकार किया है। जेम्स एल्विस तथा चाइल्डसं का यह मानना है कि बुद्ध के समय भारतवर्ष के भिन्नभिन्न प्रदेशों में सोलह प्रादेशिक बोलियां प्रचलित थीं। उनमें जो बोली मगध में बोली जाती थी, भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों का माध्यम उसी को बनाया । विडिश के भो लगभग ये ही विचार हैं। विण्टरनित्ज ने भी इसी विचार को प्रश्रय दिया है। उनके मत में थोड़ा-सा भेद अवश्य है। उनका कथन है कि पालि एक साहित्यिक भाषा यो। साहित्यिक भाषा का विकास अनेक प्रादेशिक बोलियों के मिश्रण से होता है। विष्टरनित्ज इतना अवश्य मानते हैं कि उन प्रादेशिक बोलियों में, जिनके समन्वय से पालि अस्तित्व में माई, प्राचीन मागधी का मुख्य स्थान था। सर जान नियसन ने सामान्यतः मागधी को पालि का आधार तो माना है, पर, उन्होंने पालि में उस समय की पश्चिमी बोलियों का प्रभाव देखते हुए कहा है कि पालि 1. History of Indian Literature, Vol. II, p. 13 ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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