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भाषा और साहित्य पालि-भाषा और पिटक-वाङ्मय
[ १७५ का आधार विशुद्ध मागधी नहीं है। उसका आधार कोई पश्चिमी बोली है। ग्रियर्सन की कल्पना और आगे बढ़ती है। वे कहते हैं कि पालि का आधार मागधी का वह रूप है, जो तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रचलित पो। उनके अनुसार उसी में त्रिपिटक का संस्करण वहां सम्पन्न हुमा ।
डा० कीथ ने 'दी होम ऑफ पालि' शीर्षक निबन्ध में इसका खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा के माध्यम के रूप में पालि के व्यवहृत होने के सम्बन्ध में ग्रियसन या किसी दूसरे विद्वान् ने ऐसी कोई युक्ति नहीं दी है, जो काटी न जा सके । त्रिपिटक के वहां संकलित किये जाने के बारे में भी कोई प्रामाणिक आधार या युक्ति उन्होंने प्रस्तुत नहीं की है।
वस्तुत: मगध और तक्षशिला के मध्य बहुत अधिक व्यवधान है। मगध से चल कर तक्षशिला पहुंचने तक बोच में अनेक प्रादेशिक बोलियां आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में मागधी का कोई रूप तक्षशिला जैसे दूर पश्चिम के स्थान में प्रयुक्त रहा हो, ऐसा सम्भाग्य नहीं लगता। त्रिपिटक के तक्षशिला में संकलित होने का भाधार भी सर्वथा अनुपलब्ध है।
जर्मन विद्वान् डा• गायगर ने प्रस्तुत प्रसंग पर जो मत उपस्थित किया है, वह काफी खोज पूर्ण और विचारणीय है। उनकी मान्यता है कि मागधी किसी प्रदेश-विशेष या जनपद-विशेष की बोली जाने वाली एक ऐसी भाषा थी, जो अन्तरप्रान्तीय रूप लिये हुए थी। वह भगवान् बुद्ध के युग के पूर्व से ही विकासोन्मुख थी। एक अन्तरप्रान्तीय या सामान्य भाषा ( Common Language ) के विविध प्रदेशों में बोले जाने में थोड़ी भिन्नता तो सहज हो ही जाती है, पर, उसकी मौलिक एकता विच्छिन्न नहीं होतो। भगवान् बुद्ध ने इसी भाषा को अपने प्रवचन के माध्यम के रूप में स्वीकार किया। जिस अन्तरप्रान्तीय भाषा की चर्चा की जा रही है, यह स्वाभाविक था कि उसमें अनेक प्रादेशिक बोलियों के तत्व विद्यमान रहें। बुद्ध मगध के नहीं थे, परन्तु, उनके जीवन का अधिकांश कार्य भी वहीं सम्पादित हुआ; अतः यह स्वाभाधिक था कि उनकी भाषा मगध की बोली से प्रभावित हो। साररूप में डा० गायगर का मत यह है कि पालि विशुद्ध मागधी तो नहीं थो, पर, मागधी पर आश्रित एक सामान्य लोक-भाषा थी, जिसमें बुद्ध ने अपना सन्देश प्रसारित किया।
1. R. G. Bhandarkar Commemoration, Volume, P. 117-123
( 'दी होम ऑफ लिटरेरी पालि' शीर्षक डा० ग्रियर्सन का लेख ) 2. Budhistic Studies, Edited by Dr. Law, P. 739
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