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१७६ ] मागम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन
[खण्ड : २ मागधी के जो लक्षण घेयाकरणों ने निरूपित किये हैं, उनके अनुसार क्या पालि को मागधी पर आधारित माना जा सकता है अथवा मागधी का कोई दूसरा रूप, जिसका स्पष्ट दर्शन प्राप्त नहीं है, उसका आधार रहा हो। इस सम्बन्ध में समीक्षात्मक दृष्टि से विचार आवश्यक है। भाषा पहले बनती है और ध्याकरण उसके अनन्तर । मागधी के व्याकरण के साथ भी यह लागू है। व्याकरण किसी भाषा को नियमित, मर्यादित तथा तत्समकक्ष अन्य भाषाओं से पृथक करने का उपक्रम है। यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती व्याकरणों द्वारा भाषा के पूर्ववर्ती रूप को पकड़ा नहीं जा सकता। व्याकरण से बन्ध जाने के पश्चात् भाषा की प्रवाहशीलता-जीवितता ध्याहत हो जातो है। प्राकृत वैयाकरणों ने मागधी का जो विश्लेषण किया है, उसके साथ त्रिपिटक और तदुपजीवी साहित्य की भाषा मेल नहीं खाती। कतिपय अभिलेखों तथा नाटकों में मागधो का जो प्रयोग हुआ है, उनके साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पालि उससे निश्चय ही भिन्न है। कारण यह है कि अभिलेखों, नाटकों और प्राकृतब्याकरणों का अस्तित्व पालि के बाद का है।
मागधी की मुख्य विशेषताएं
मागधी में 'र' के स्थान पर 'ल' होता है और 'स' के स्थान पर 'श' ।' पुल्लिग अकार न्त शब्दों की प्रथमा विभक्ति एक वचन में अ के स्थान पर ए होता है अथवा पुल्लिंग प्रथमा एकवचन का रूप एकारान्त होता है। शूद्रक-कृत मृच्छकटिक का निम्नांकित श्लोक मागधी के लक्षणों का परिचायक है :
किं याशि धावशि पलाअशि पक्खलन्ती, बाशू पशीद ण मलिश्शशि चिट्ठ दाव । कामेण दण्झदि हु मे हडके तवश्शो, अंगाललाशिपडिदे इअ मंशखण्डे ॥ ( किं यासि धावसि पलायसे प्रस्खलन्ती, वासु प्रसीद न मरिष्यसि तिष्ठ तावत् । कामेन दह्यते खलु मे हृदयं तपस्वि, अंगारराशिपतितमिव मांसखण्डम् ॥ )
१. रसौलेशौ ।। ८।४ । २८८ मागध्यां रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासंख्यं लकारस्तालठयशकारश्च भवति ।
-सिद्धहैमशब्दानुशासनम्
२. अत एत्सौ पुसि मागध्याम् ।।८।४ । २८७ मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारौ भवति पुसि पुल्लिगे।
-सिद्धहैमशब्दानुशासनम् । Jain Education International 2010_05
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