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________________ भाषा और साहित्य ] पालि-माषा और पिटक-वाङमय [ १७७ पालि में रकार यपावत् बना रहता है। कभी-कभी अनियमित रूप में उसका लकार में परिवर्तन हो जाता है। यह सर्वव्यापी नियम नहीं है, कादाविक है। उदाहरणार्थ, संस्कृत का तरुण शब्द पालि में तलुण के रूप में भी प्रयुक्त होता है और तरुण के रूप में भी। पालि में स ( दन्त्य ) श ( तालध्य ) में परिवर्तित होता ही नहीं। मागधी में तालव्य श को बहुलता है। उसमें दन्त्य स की तरह मूर्धन्य ष भी तालव्य बन जाता है। जैसे, पुरुषः-सुलिशे, स:शे । पुल्लिग की तरह अकारान्त नपुंसक लिंग शब्दों में भी प्रथमा विभक्ति के एक पचन में एकारान्त रूप बनते हैं। पालि में न पुल्लिंग में और न नपुसक लिंग में ही यह नियम लागू होता है। वहां पुल्लिंग में ओकारान्त और नपुसक लिंग में अनुस्वारान्त रूप होते हैं। कहीं-कहीं कादाचित्कतया एकारान्त रूप भी देखें जाते हैं, पर, वैसी नियम-बद्धता जरा भी नहीं है। इसका कारण यह है कि पालि और प्राकृत संस्कृत की तरह व्याकरण के जटिल और कठोर नियमों में प्रतिबद्ध नहीं हैं; अत: यत्र-तत्र ऐसा भी कुछ हो जाता है, जो व्याकरण के नियमों से संगत नहीं है। पर, उसे क्षम्य और सह्य माना जाता है। केवल मगध प्रदेश तक ही सीमित रहने वाली बोली पालि का एक मात्र आधार नहीं हो सकती। पालि उस मिली-जुली टकसाली भाषा या अन्तर प्रान्तीय ( Inter Provincial ) भाषा पर ही आधारित मानी जा सकती है, जो मध्यमण्डल या मध्यदेश की भाषा थी। मध्यदेश का स्वरूप साधारणतया सम्भवत यह रहा होगा-पश्चिम में जनपद अर्थात् आज के हरियाणा के पश्चिमी भाग से लेकर पूर्व में मगध अर्थात् दक्षिण बिहार, उत्तर में आवस्ती ( सेंठ महेठ-उत्तरप्रदेश ) से लेकर दक्षिण में अवन्तो ( उज्जैन या मालव के क्षेत्र) तक विस्तृत भूभाग । इतने विशाल क्षेत्र में वह भाषा, जो सामान्य भिन्नता के साथ सर्वत्र समान रूप से काम में आए, किसी एक ही प्रदेश से सम्बद्ध नहीं हो सकती। इतना हो सकता है कि राजनीति या शासन की दृष्टि से जो केन्द्र-स्थान हो, उस क्षेत्र की भाषा की वहां मुख्यता रहे। उस युग में मगध राजनैतिक दृष्टि से समग्र उत्तर भारत का केन्द्र था। यद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्य से पूर्व ऐसा सम्राट मगध में नहीं हुआ, जिसका आधिपत्य समग्र उत्तर भारत में अव्याहत रूप में प्रसृत हो सका हो, फिर भी मगध में अनेक ऐसे शासक होते रहे हैं, जिनका मगध के समीपवर्ती आस-पास के प्रदेशों पर आधिपत्य रहा था। यदि आधिपत्य नहीं रहा, तो उनका प्रभाव तो अवश्य ही था; अतः सारे मध्यमण्डल की समन्वित या सम्मिश्रित भाषा पर मगध की बोली का प्रभाव रहना असंगत नहीं दीखता। केन्द्रीय प्राधान्य को द्योतित करने की दृष्टि से उसका मागधी नाम प्रचलित रहा है, यह सेहजतया सम्भव प्रतीत होता है । अर्द्धमागधी और पालि __ प्राकृत के भेदों में एक भेद अद्ध' मागधी है। बह जैनों के अंग-साहित्य की भाषा है। Jain Education International 2010_05 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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