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________________ . १७८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड : २ इस पर विस्तृत विवेचन अग्रिम अध्याय में किया जायेगा। पालि के सन्दर्भ में जो चर्चनीय है, उससे सम्बद्ध विचार किया जा रहा है। अद्धमागधी का सामान्यतया यह अर्थ है कि वह भाषा, जो शौरसेनी और मागधी भाषाए बोले जाने वाले क्षेत्र के बीच के भाग में बोली जाती थी। इसका फलित यह होता है, अद्धमागधो वह भाषा है, जिसमें मागधी और शौरसेनी दोनों का समन्वित रूप प्राप्त होता है। अद्ध मागधी का अर्थ एक दूसरे प्रकार से भी किया जाता है। तदनुसार वह भाषा, जिसमें मागधी के आधे लक्षण मिलते हों, भद्धमागधी है। मागधी के मुख्यतः तीन लक्षण हैं। उसमें मूर्धन्य ष और दन य स के बदले तालव्य श तथा र के स्थान पर ल का प्रयोग होता है। अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के कर्ता कारक एक वचन में ए प्रत्यय प्रयुक्त होता है। अद्ध मामधी में तालव्य श का प्रयोग बिलकुल नहीं होता। र के स्थान में ल का प्रयोग कभी-कभी होता है । अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ए प्रत्यय का प्रयोग अधिकांशतः होता है। इस प्रकार मागधी के आधे लक्षण इसमें मिलते हैं। इसकी कारक-रचना में दूसरी विशेषता यह पाई जाती है कि अधिकरण या सप्तमो विभक्ति में ए और म्मि के अतिरिक्त अंसि प्रत्यय भी प्राप्त होता है। जैसे, वणे, वणम्मि, वर्णसि। दशवकालिक सूत्र के निम्नांकित उदाहरण से यह स्पष्ट होता है : लहावित्ति सुमंतुठे अप्पिच्छे सुहरे सिया । आसुरत्त न गच्छेज्जा सोचाणं जिणसासणं ।। ( रुक्षवृत्तिः सुमन्तुष्टः अल्पेच्छः सुमरः स्यात् । . . असुरत्वं न गच्छेत् श्रुत्वा जिनशासनम् ।। ) लूडस का मत है कि प्राचोन अद्धमागधी पालि का मूल आधार है। उनके अनुसार त्रिपिटक साहित्य अद्धमागधी भाषा में लिखा गया । तत्पश्चात् उसका पालि में रूपान्तरण हुआ । लूडर्स पालि को पश्चिमी बोली पर आश्रित मानते हैं । उनका यह भी कहना है कि इस समय त्रिपिटक में जो पालि का स्वरूप प्राप्त है, उसमें मागधी का जो यत्किंचित् दर्शन होता है, वह प्राचीन अद्ध'मागधी के अवशिष्ट अंशों के चले आने से है। पालि में रूपान्तरण करते समय ये अंश बचे रह गये ।। कीथ ने लूडसं का खण्डन किया है। उनके कथन का अभिप्राय है कि आगे चलकर अद्धमागधी का विकास जिस साहित्यिक अद्धमागधी प्राकृत में हुआ, वह लूडर्स द्वारा परिकल्पित प्राचीन अद्धमागधी थी, ऐसा नहीं कहा जा सकता । 1. 2. Budhistic Studies, P. 734 I bid; P. 734 ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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