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________________ भाषा और साहित्य ] आर्य एक भाषा लिये आये डा० चटर्जी भारत आने वाले आर्यों को Nordic नाडिक अर्थात् उत्तर देश के मानव और Alpine आल्प पर्वतीय या मध्य यूरोपीय जाति के इस रूप में जो दो प्रकार के बतलाते हैं, हो सकता है, ऐसी सम्भावना हो । पर ऐसा मानने में एक कठिनाई अवश्य आती है । दो भिन्न जातियों के लोग, जिनकी भाषाएं भिन्न होनी ही चाहिए, जिन्हें वे अपने साथ लिये आये । बहुत मामूली सा पार्थक्य, जो सुगमता से शीघ्र ही मिट जाए, दो भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भिन्न जातियों की भाषाओं में कैसे सम्भव हो सकता है, यह सूक्ष्मता से विचार करने योग्य है । हो, एक बात हो सकती है; यूराल पर्वत के दक्षिण में अर्थात् दक्षिण-पश्चिम रूस में, जिसे आर्यों का आदि स्थान मानकर हम चिन्तन कर रहे हैं, ये दो भिन्न जातियां रहती रही हों। दोनों की भाषा एक हो गई हो, जिसे भाषा- 'ज्ञानिकों ने अब कल्पित नाम विरोस् दिया है । पर इन दोनों जातियों में किस जाति के लोग वहां के मूल निवासी थे, किस जाति के लोग बाद में वहां आकर उनमें मिल गये, इस सम्बन्ध में इतिहास कुछ नहीं बताता । केवल कल्पना ही को जा सकती है । विश्व नावा- प्रवाह प्रस्तुत प्रयोज्य भाषा सम्बन्धी विश्लेषण है; अतः यह मानकर चलना संगत होगा कि भारत में बाहर से जो लोग आये, उनकी भाषा मूलतः एक थी । विभिन्न टोलियों व गोत्रों की बोलियों में किंचित पार्थक्य हो सकता है, जो नगण्य है । ऋषाओं के नाद । आर्य पंचनद में आये । प्रकृति सुरम्य थी । भूमि उधर थी । स्वच्छ सलिला सरिताए बहती थीं । यूराल के दक्षिणवर्ती मैदानों से चलकर यहां तक पहुंचने के बीच आर्यों ने विभिन्न भू-भागों में बसने वाली विभिन्न जातियों के सम्पर्क से तब तक कृषि कर्म जान लिया होगा । वे परिश्रमी और लगनशील थे । कृषि - कार्य में जुट गये होंगे फसलों से भूमि लहलहा उठी होगी | ऐसे सुन्दर और मनोज्ञ वातावरण ने आर्यों को मोह लिया होगा, जिसकी प्रतिध्वनि ऋग्वेद की ऋचाओं में प्राप्त कर सकते हैं। ऋग्वेद के सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु, अग्नि, द्यौ, उपा; इन सब में देवत्व की प्रतिष्ठा कर इनकी स्तुति मौर प्रशस्ति 2 में हर्ष - विभोर हो उठते हैं । भूमि: माता पुत्रोऽहं पृथिव्याः जैसे वाक्य उनके अन्तरतम की सुखद अनुभूति के परिचायक हैं । Jain Education International 2010_05 [१ १. ओं अग्निदेवता वातो देवता सूर्य्यो देवता चन्द्रमा देवता । वसवो देवता बित्या देवता महतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पति देवता इन्द्रो देवता वरुणो देवता । २. ओं द्योः शान्तिरन्तरिक्ष थं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेषि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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