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________________ ३२८ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ कितनी समृद्ध तथा सम्पन्न थी। जिज्ञासा : मुमुक्षा का द्वार ___ सौमिल ब्राह्मण के यहां इन्द्रभूति आदि अन्य विद्वानों की तरह आर्य सुधर्मा भी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ यज्ञ-भूमि में उपस्थित थे। वहां से भगवान् महावीर के सान्निध्य में उपस्थित होना, धार्मिक दृष्टि से एक उत्क्रांत मोड़ लेना, श्रामण्य-धर्म स्वीकार करना, अयन्त जिज्ञासु तथा विनम्र भाव से भगवान महावीर के चरणों में अपने को समर्पित कर देना; सब ऐसी घटनाए थों, जिनसे आर्य सुधर्मा के सत्योन्मुख, निष्पक्ष एवं मुमुक्ष-जोधन का स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है । आहती दीक्षा स्वीकार करने के समय आर्य सुधर्मा की आयु पचास वर्ण की थी। तब वे अवस्था में भगवान महावीर से लगभग आठ वर्ष ज्यायान् थे। इसका अर्थ हुआ, वे तब तक बहुत प्रौड़ हो चुके थे, ख्याति प्राप्त तो थे हो। जिन विषयों में उनका अध्ययन था, वह भी तब तक विशेष परिपक्क हो चुका था, पर, जिज्ञासा का भाव उनके अन्तर्मन में उस समय भी परिव्याप्त था। सत्य को उपलब्धि के लिए बुद्धि का द्वारा सर्वथा उन्मुक्त था; अतएव ज्यों हो भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सत्य से वे अवबुद्ध हुए, बिना किसी ननुनच या संकोच के शिशु की तरह अत्यन्त सरल और विनीत भाव से उसे अपनाने को तत्पर हो गये। उनके मन में नहीं आया, वर्षों तक जिन सिद्धान्तों के आधार पर जीवन चला है, प्रतिष्ठा अर्जित की है, उनका सहसा कैसे परित्याग किया जाय । न यह भी भाव उनके मन में उत्पन्न हुआ कि अपने अनुयायियों, श्रद्धालुओं एवं शिष्यों में उनकी कितनी ख्याति और यश है। उनके (सुधर्मा )द्वारा नये पथ का अवलम्बन कर लिये जाने से उन सबके मन में क्या आयेगा ? क्या वे उनकी दृष्टि में अवहेलना के पात्र नहीं बनेंगे ? यही वे प्रतिबन्ध, विघ्न या अन्तराय हैं, जो मानव को उन्मुक्त रूप से विकास के पथ पर अग्रसर नहीं होने देते । आयं सुधर्मा इन अवरोधों से, जिन्हें वस्तुतः दुर्बलता कहा जाना चाहिए, ऊपर उठे हुए थे। वे स्वाभिमानो थे, पर, अहंकायी नहीं। स्वाभिमान में मानव का विवेक उबुद्ध रहता है और अहंकार में मूच्छित । आर्य सुधर्मा ने पोढ़ियों से स्वीकृत, पालित और पोषित परम्परा को अयथार्थ समझ लिया, उसका तत्क्षण परित्याग कर दिया। वास्तव में जिनको अन्तश्चेतना जागृत होती है, ऐसे व्यक्ति, कौन क्या कहता है, उससे जरा भी प्रभावित नहीं होते। वस्तु-सत्य या तथ्य क्या है, इसका उनके जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अन्तेवासियों पर प्रभाव आर्य सुधर्मा ने जो मोड़ लिया, उसकी प्रतिक्रिया दूसरों पर भी उसी प्रकार की हुई, ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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