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________________ माषा और साहित्य ] आर्ष ( अद्धमागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३२७ प्राचीन भू-भाग था। पर, उन दिनों धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से लोगों की विचार. चेतना कुछ कुण्ठित जैसी बनी जा रही थी। पुरातन परम्परा का नेत्र मूदे अनुसरण करते जाने में लोग अभ्यस्त से होने लगे थे। कर्मकाण्ड और यज्ञवाद का प्राबल्य था। इस वातावरण के परिपार्श्व में आय' सुधर्मा का लालन-पालन हुआ । वे एक विद्वान् पिता के पुत्र थे। वेद, वेदांग आदि अनेक विषयों का गम्भीर अध्ययन करने का सुअवसर उन्हें मिला। नियुक्तिकार ने गणधरों की जाति, विद्या आदि का विवेचन करते हुए जो गाथा' कहों है, अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण विऊ भी है। विऊ 'विव:' का प्राकृत रूप है। आचार्य मलयगिरि ने इसका विश्लेषण करते हुए लिखा है : . ___...........विदन्तीति विदः-विद्वानाः, चतुर्दशविद्यास्थान पारगमनात् । तानि चतुर्दश विद्यास्थानान्यमुनि-अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या हताश्चतुर्दश। तत्रांगानि तद्यथा शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुवत छन्दो ज्योतिष चेति, एष गृहस्थाश्रम उक्तः ।"" _ विद्वद्धश-परम्परा में उत्पन्न होने के नाते आर्य सुधर्मा ने ऋक्, यजुष् , साम और अथवं; इन चारों वेदों, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष; इन छहों वेदांगों, मोमांसा, न्याय, धर्म शास्त्र तथा पुराणि, आदि सब मिलकर इन चवदह विद्याओं का सम्यक्तया अध्ययन किया, उनके पूर्ण अधिकारी विद्वान् बने। शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रति लोगों में श्रद्धा थो, आदर था; अतः उन्हें असाधारण ख्याति तथा प्रतिष्ठा भी मिली हो, ऐसा सम्भाव्य है। __नवोन तथा क्रान्तिपूर्ण चिन्तन का मानस लोगों का अपेक्षाकृत कम था, पर, विभिन्न शास्त्रों का परम्परा से विधिपूर्वक बहुश्रु त गुरु के पास अध्ययन करने की लोगों में अभिरुचि रहती थी। विशेषतः ब्राह्मण-जाति में वेद, वेदांग, मीमांसा, न्याय, पुराण, धर्मशास्त्र आदि के अध्ययन का एक व्यवस्थित क्रम था। प्राचीन वैदिक-परम्परा की गुरुकुल प्रणालो पूर्णतया तो नहीं, पर, अंशत: प्रचलित थी। यही कारण है कि इन्द्रभूति, सुधर्मा • आदि विद्वान् सेकड़ो शिष्यों के (विद्या) परिवार वाले थे। आर्य सुधर्मा के पांच सौ अन्ते. वासी थे, जो उनके पास विद्याध्ययन करते थे। सम्भवतः उनके यहीं रहते हों। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनको विद्याशाला, गृह-व्यवस्था एवं सामाजिक स्थिति १. सव्वे य माहणा जच्चा, सव्वे अज्झावया विऊ । ___सव्वे दुवालसंगिआ, सव्वे चउदसपुग्विणो ॥ -आवश्यक-नियुक्ति, गाथा ६५७ २. श्री आवश्यकसूत्रम्, द्वितीय भागः, पृ० ३३९ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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