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________________ fire साहित्य ] प्राप्त हुआ । इस उल्लेख से धरसेनाचार्य का कोई निश्चित समय बोधित नहीं होता । इन्द्रनन्दि ने तावतार में लोहार्य तक का गुरु-क्रम बताने के साथ-साथ सामष्टिक रूप से चार आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनके नाम विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त तथा प्रर्हद्दत्त हैं । इन्द्रनन्दि के अनुसार ये आचार्य अंगों तथा पूर्वी के एकदेशीय ज्ञाता थे। इनके अनन्तर इन्द्रनन्दि ने अर्हदुबलि की चर्चा की है । उनके सम्बन्ध में कहा है कि वे महान् संघाधिपति थे । पूर्व देश में स्थित पु'डवर्धन नामक नगर उनका जन्म स्थान था। वे जैन संघ की समयानुरूप नई व्यवस्था बांधना चाहते थे, इसलिए पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमण के अवसर पर उन्होंने मुनियों का एक सम्मेलन प्रायोजित किया । श्रुतावतारकार ने लिखा है कि उस सम्मेलन में सौ योजन के मुनिगण उपस्थित हुए थे । स्थिति का पर्यवेक्षरण कर अर्हद्रबलि सोचने लगे, ऐसा युग आ गया है कि मुनियों का मन पक्षपात से अछूता नहीं है । धर्म संघ बड़ा विशाल है । अब मेलपूर्वक निर्वाह में कठिनाई होगी । इसलिए अधिक अच्छा हो, यदि संघ को कई भागों में बांट दिया जाये । ऐसा करने से, श्रहं दुबलि का चिन्तन था, सैद्धान्तिक ऐक्य अक्षुण्ण रहेगा, संघीय व्यवस्था अपनी-अपनी होती रहेगी। इससे श्रमरणों में पारस्परिक स्नेह, समन्वय एवं आत्मीय भाव की वृद्धि होगी । इस विचार के अनुसार उन्होंने सारे संघ को कई भागों में बांट दिया। उनके अलग-अलग संघ बना दिये, जिनमें नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुरणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि मुख्य थे । शौरसेनी और उसका वाङ्मय प्राकृत इन्द्रनन्दिने श्रुतावतार में श्रर्हबलि के पश्चात् माघनन्दि के होने का उल्लेख किया है । उन्होंने उन्हें मुनिश्रेष्ठ कहा है । यह भी सूचित किया है कि माघनन्दि ने अंगों मौर पूर्वो के एकदेश का उद्योत प्रसृत किया । अन्त में समाधि मरण द्वारा अपनी ऐहिक लीला समाप्त की । १. तो सम्बेसिमंगपुब्वाणमेग-वेसो संपतो । Jain Education International 2010_05 eva इन्द्रनन्दि ने उनके पश्चात् प्राचार्य धरसेन की चर्चा की है, जो गिरिनार के समीप ऊर्जयन्त पर्वत की चन्द्र गुफा में निवास करते थे । लोहा के पश्चात् इन्द्रनन्दि ने उपर्युक्त रूप में चार और तीन मुनियों का जो उल्लेख किया है, वहां उनके पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कुछ नहीं कहा है । अतः कौन किसका आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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