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________________ ६४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन उत्तराधिकारी था, उनमें परस्पर गुरु-शिष्य-सम्बन्ध था या नहीं, कुछ ज्ञात नहीं होता। ऐसा लगता है, इन्द्रनन्दि ने इन विशिष्ट मुनियों के नाम सुने हों और काल-भेद के बिना उनका उल्लेख कर दिया हो । जो इतिवृत्त प्राप्त हुआ या सुना गया, उसे भी वरिणत कर दिया हो । इन्द्रनन्दि ने स्वयं प्रसंगोपात्त रूप में कहा है कि गुणधर और धरसेन की गुरुपरम्परा उन्हें ज्ञात नहीं है। क्योंकि वैसा बताने वाला न कोई ग्रन्थ है और न कोई मुनि ही।। नन्दि-संघ की संस्कृत-गुर्वावली में माधनन्दि नन्दिसंघ की संस्कृत-गुर्वावली में जहां मूल संघ से नन्दिसंघ व बलात्कारगण की उत्पत्ति का उल्लेख है, वहीं माघनन्दि की चर्चा है । गुर्वावलिकार ने उन्हें पूर्वपदांशवेदीअंशतः पूर्व-ज्ञान के वेत्ता तथा मनुष्यों और देवों द्वारा वन्दनीय कहा है।' सम्भव है, अर्हद्बलि ने जैन संघ का जो विभिन्न संघों में विभाजन किया, उनमें नन्दिसंघ का अधिनायकत्व उन्हें सौंपा हो । इस गुर्वावली में धरसेन का कोई उल्लेख नहीं है । माघनन्दि के उत्तराधिकारी के रूप में जिनचन्द्र का, तत्पश्चात तत्पट्टाधिकारी पद्मनन्दि कुन्दकुन्द का उल्लेख है। यहां यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि श्रु तावतार में जिन माघनन्दि की चर्चा है, ये वह माघनन्दि हैं या कोई दूसरे। क्योंकि वहां उनके बाद धरसेन पाते हैं, जब कि यहां वैसा कोई संकेत नहीं है । ___ यहां एक कल्पना की जा सकती है कि जिनचन्द्र तथा धरसेन दोनों ही माघनन्दि के शिष्य रहे हैं । धरसेन की विद्या, ध्यान, मंत्र तथा तप की आराधना में अधिक अभिरुचि रही हो । ऊर्जयन्त पर्वत की चन्द्र-गुफा में उनके साघना-निरत रहने की घटना से यह तथ्य समर्थित होता है। वैसी स्थिति में माघनन्दि ने संघीय व्यवस्था का उत्तरदायित्व जिनचन्द्र को सौंप दिया हो; अतः गुर्वावली के पट्टानुक्रम में धरसेन का नाम न पाकर जिनचन्द्र का नाम माया हो। १. गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥ २. श्री मूलसंजनि नबिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः । तवाभवत्पूर्वपाशवेधी श्रीमाधनन्वी नरदेववन्धः ॥ व सिद्धान्त भास्कर १.४, पृ०५१ Jain Education International 2010 05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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