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________________ ४४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ का इस प्रसंग में वर्णन आता है। रथमूसल तथा महाशिला-कंटक संग्राम का वहां उल्लेख मात्र है। उस सम्बन्ध में व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का संकेत कर दिया गया है । दूसरे अध्ययन की सामग्री केवल इतनी-सी है :--"उस समय चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। कूणिक राजा था और पद्मावती उसकी रानी थी। वहां चम्पा नगरी में पहले राजा श्रेरिणक की भार्या, कूणिक की कनिष्ठा माता सुकुमारांगी सुकाली रानी थी। सुकाली देवी के सुकुमारांग सुकाल कुमार हुआ। तीन सहस्र हाथियों को लिये युद्ध में गया हुआ, कालकुमार जिस प्रकार मारा गया, उसी तरह का समग्र वृत्तान्त सुकालकुमार का भी है। अन्ततः सुकालकुमार भी महाविदेह-क्षेत्र में संसार का अन्त करेगा-सिद्ध होगा।'' दूसरे अध्याय का वृत्तान्त यहीं समाप्त हो जाता है। तीसरे से दसवें तक के अध्ययनों का वर्णन भी केवल इतनी-सी पंक्तियों में है : “शेष पाठों अध्ययनों को प्रथम अध्ययन के सदृश समझना चाहिए। पुत्रों और माताओं के नाम एक जैसे हैं । निरयावलिका सूत्र समाप्त होता है ।''2 ६. कप्पवडंसिया ( कल्पावतंसिका) कल्पावतंस का अर्थ विमानवासी देव होता है। कल्पावतंसिका शब्द उसी से निष्पन्न हुमा है। इस उपांग में दश अध्ययन हैं, जिनमें राजा श्रेणिक के दश पौत्रों के संक्षिप्त कथानक हैं, जो स्वर्गगामी हुए। दश अध्ययनों के नाम चरित-नायक कुमारों के नामों के अनुरूप हैं; जैसे, १. पद्मकुमार-अध्ययन, २. महापद्मकुमार-अध्ययन, ३. भद्रकुमारअध्ययन, ४. सुभद्रकुमार-अध्ययन ५. पद्मभद्र कुमार-अध्ययन, ६. पद्मसेनकुमार-अध्ययन, ७. पद्मगुल्मकुमार-अध्ययन, ८. नलिनीगुल्मकुमार-अध्ययन, ९. आनन्दकुमार-अध्ययन तथा १०. नन्दकुमार-प्रध्ययन । दशों कुमार निरयावलिका ( कल्पिका ) में वरिणत राजा श्रेणिक के कालकुमार प्रादि १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं एयरी होत्या, पुण्णभद्दे चेइए, कुरिणय राया, पउमावई देवी। तत्थरणं चंपा नयरीए सेणियस्स रणो अज्ज कोरिणयस्स रण्णो चुल्लमाउया सुकाली नाम देवी होत्था सुकमाला। तीसेणं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामे कुमारे होत्था सुकुमाले। तते रणं से सुकालेकुमारे अन्नयाकयाइ तिहिं दंति-सहस्सेहि जहा काले कुमारे निरविसेसं तहेव महाविदेहवासे अंते करेहिति । -निरयावलिया, द्वितीय अध्ययन, पृ० ६३-६४ २. एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा । नायव्वा पढमं सरिसा, णवरं माताओ सरिसा गामा । .. गिरयावलीयामओ सम्मताओ। -निरयावलिया, समाप्ति-प्रसंग ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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