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________________ ६३०॥ मागम और विपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:३ एक सम्भावना यह भी की जा सकती है, वे एक ध्यान-योगी एवं तपस्वी साधक थे । जब उन्होंने देखा कि शिष्यों को विद्या-दान कर वे अपना उत्तरदायित्व पूरा कर चुके हैं तो उन्हें लगा हो कि अब उन्हें पुनः एकान्त साधना में जुट जाना चाहिए। अतः एक दिन भी वे अपने शिष्यों को अपने पास क्यों रखें। यह सम्भावना कुछ संगत प्रतीत नहीं होती; क्योंकि प्राचार्य धरसेन की वैसी भावना होने पर भी जिस दिन विद्याध्ययन समाप्त हुआ, उसी दिन या उसके अगले दिन शिष्यों को रवाना करने जैसी शीघ्रता करने की वैसी क्या आवश्यकता थी। कुछ समय शिष्यों के वहां रहते हुए भी उनकी साधना चल सकती थी। एक कल्पना यह भी है, उन्होंने सोचा हो, जो श्रु त उन्होंने अपने अन्तेवासियों को दिया है, उसके प्रसार-विस्तार में एक दिन का भी विलम्ब क्यों हो। अतएव उन्हें तत्काल रवाना कर दिया हो । पर, यह संभावना भी कम व्यवहार्य प्रतीत होती है । इन्द्रनन्दि और श्रीधर का संकेत इन्द्रनन्दि के श्रु तावतार तथा श्रीधर के श्रुतावतार में पहली सम्भावना की ओर संकेत किया है । अर्थात उनके अनुसार आचार्य धरसेन को ऐसा भान हुआ कि उनकी मृत्यु सन्निकट है । उनके निधन का दृश्य देख उनके शिष्यों को मनः क्लेश न हो, इसलिए उनको प्रस्थान करा दिया।' कुलेश्वर में पातुस्थि पुष्पदन्त एवं भूतबलि गुरु की आज्ञा को अलंघनीय मानते हुए उसे शिरोधार्य कर चल पड़े। वे अंकुलेश्वर आये। इन्द्रनन्दि ने उस नगर का नाम कुरीश्वर लिखा है । ऐसी भी १. स्वासन्नमृति ज्ञात्वा मा भूत संक्लेशमेतयोरस्मिन् । इति गुरुणा संञ्चित्य द्वितीयविवसे ततस्तेम ॥ -इन्द्रनन्दि मात्मनो निकटमरणं ज्ञात्वा धरसेनस्तयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनि विसर्जन करिष्यति । -श्रीधर २. ....'गुरुवयणमलंघणिज' इवि चितिऊणागदेहि अंकुलेसरे परिसाकालो को। -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७१ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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