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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वा मय * ૧૧ चर्चा की है कि वे दोनों मुनि नौ दिनों की यात्रा कर वहां पहुंचे । इसका अर्थ यह हुआ कि वे यदि आषाढ़ शुक्ला एकादशी को गिरिनगर से चले तो श्रावण कृष्णा चतुर्थी को अंकुलेश्वर पहुंचे और यदि श्राषाढ़ शुक्ला द्वादशी को चले तो श्रावरण कृष्णा पंचमी को वहां पहुंचे । अर्थात् जैन मर्यादा के अनुसार चातुर्मास्य के प्रारम्भ हो जाने के छः या सात दिन बाद वहां पहुंचे । उनकी यह साप्ताहिक यात्रा जैन आचार-व्यवस्था के अनुसार विहित नहीं थी, पर शायद अपवाद रूप में उन्हें वैसा करना पड़ा हो; श्राषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी तक उनके पास विहार के लिए केवल तीन दिनों का समय अवशिष्ट था । इतने अल्प समय में वे चातुर्मासिक प्रवास के लिए उपयुक्त स्थान पर नहीं पहुंच सके हों । अस्तु, उन्होंने अंकुलेश्वर में अपना चातुर्मास्य किया । errer घरसेन : तिरोधान महान् मनीषी एवं साधक आचार्य धरसेन के जीवन का केवल इतना सा भाग प्रकाश में है । उनके आगे-पीछे के इतिवृत्त के सम्बन्ध में और कुछ विशेष ज्ञात नहीं है । अपनी विद्या को सत्पात्र में सन्निधापित करने की तीव्र उत्कण्ठा, सुयोग्य, जिज्ञासु एवं जिघृक्षु अन्तेवासियों की प्राप्ति, विद्या का दान और उसके बाद तिरोधान - यही संक्षेप में उनके व्यक्त जीवन का लेखा-जोखा है । पुष्पदन्त तथा भूतबलि को प्रस्थान कराने के बाद वे हमारी आंखों से प्रोझल हो जाते हैं । अब कुछ, क्या हुआ, सब अज्ञात है । भारत के साधक मनीषियों की कुछ इसी प्रकार की स्थिति रही है । आचार्य धरसेन के सम्बन्ध में जो कुछ प्राप्त आधार, उल्लेख या सम्भावनाएं हैं, उनके परिपार्श्व में यथास्थान चर्चा करेंगे । खVडTTA Eा ान मुनि पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने अंकुलेश्वर में चातुर्मासिक प्रवास किया। उस सन्दर्भ में धवला में उल्लेख है : " वर्षावास बिताकर प्राचार्य पुष्पदन्त जिनपालित को देखकर ( उसके साथ) वनवास नामक प्रदेश की ओर चले गये । भूतबलि भट्टारक द्रमिक प्रदेश की ओर चले गये । तत्पश्चात् आचार्य पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा की । बीस अधिकारों में विभक्त सत्प्ररूपणा के सूत्र रचे तथा जिनपालित को उन्हें पढ़ाया । फिर उसे भूतबलि भट्टारक के पास भेज दिया । "2 १. जोगं समाणीय जिणवालियं वरुण पुप्फयंताइरियो वणवासविसयं गवो । भूदबलिभारवो नि वमिल बेसं गदो । तवो पुष्कयंताइरिएण जिणवालिवस्त बिक्खं वाऊण Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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