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खण्ड : २
धवलाकार के इस कथन से कई बातें प्रकट होती हैं । जिनपालित नामक एक नया व्यक्ति प्रकाश में आता है । आचार्य पुष्पदन्त उसको देखकर वनवास नामक प्रदेश को गये । इसकी स्पष्ट संगति प्रतीत नहीं होती । वे उसे कहां देखते हैं, फिर ( उसके साथ) वनवास प्रदेश की ओर कैसे चले जाते हैं; इत्यादि बातों के पूर्वापर-प्रसंग वांछित हैं, जो नहीं मिलते ।
आगम और faftee
: एक अनुशीलन
षट्खण्डागम के सम्पादक प्राकृत,
अपभ्रंश आदि प्राच्य भाषाओं के सुप्रसिद्ध विद्वान् डा० हीरालाल जैन ने इस प्रसंग में धवला में प्रयुक्त 'दट्ठूण' शब्द को लेकर एक समाधान उपस्थित किया है । प्राकृत में 'दट्ठूण' सामान्यतः पूर्वकालिक क्रिया के अर्थ में अर्थात् 'देखकर' के अर्थ में प्रयुक्त है, पर डा० जैन ने बताया है कि इसका अर्थ 'दृष्टुम् ' = देखने के लिए भी हो सकता है । उन्होंने विमलसूरि के पउमचरियं से इस कोटि के रूपों के द्योतक कुछ उदाहरण भी उपस्थित किये हैं ।
इन्द्रनन्दि ने जिनपालित को आचार्य पुष्पदन्त का भगिनी-पुत्र लिखा है । हो सकता है, निपालित एक बहुत संस्कार-सम्पन्न बालक रहा हो, आचार्य पुष्पदन्त का एक होनहार शिष्य के रूप में उसे पाने का श्राकर्षण रहा हो; क्योंकि प्राचार्य धरसेन जैसे साधक मनीषी से जो दुर्लभ श्रुत उन्हें उपलब्ध था, उसे किसी योग्य पात्र को देना भी था । योग्य पात्र सरलता से नहीं मिल पाते । अपने विशेष ज्ञान तथा पारिवारिक सम्बन्ध के नाते निपालित से रहे हुए परिचय के कारण उनके मन में यह कल्पना जागी हो कि यह श्रुतसंभार जितपालित वहन कर सकता है; अतः उसे देखने के लिए, श्रामण्य की ओर सत्प्रेरित करने के लिए वनवास- प्रदेश, जहां जिनपालित था, उनका जाना प्रसंगत नहीं लगता । आचार्य पुष्पदन्त की जन्म भूमि भी यही प्रदेश प्रतीत होता है ।
जिनालित को देखने के लिए जाने की जो सम्भावना की गई है, उसकी संगति और लग जाती है, जब पुष्पदन्त उसे दीक्षा देते हैं । इतना ही नहीं, उसे पढ़ाने के लिए ग्रन्थप्रणयन करते हैं और उसे पढ़ाते हैं ।
अपने गुरु आचार्य पुष्पदन्त द्वारा आज्ञप्त होकर जिनपालित श्राचार्य भूतबलि के सान्निध्य में पहुंचते हैं। जैसा कि धवलाकार ने संकेत किया है, भूतबलि जिनपालित को
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वीसवि-सुत्ताणि करिय पढाविय पुणो सो भूदबलिमयवंतस्स पासं पेसिदो ।
-षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७१
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