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________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्द्ध मागधी) प्राकृत और गम वाङमय [३१७ चतुर्दश पूर्त तथा समस्त गणि-पिटक के धारक थे। राजगृह नगर में मासिक अनशन पूर्वक वे कालगत हुए, सबंदुःख प्रहीण बने अर्थात् मुक्त हुए। स्थविर इन्द्रभूति (गौतम) तथा स्थषिय आयं सुधर्मा; ये दोनों ही महावीर के सिद्धिगत होने के पश्चात् मुक्त हुए।। ज्यों-ज्यों गणधर कालगत होते गये, उनके गण सुधर्मा के गण में अन्तर्भावित होते गये । द्वादश अंगों के रूप में भूत-संकलना तीर्थकर सर्वज्ञतत्व प्राप्त करने के अनन्तर उपदेश करते हैं। तब उनका ज्ञान सर्वथा स्वाश्रित या आत्म-साक्षात्कृत होता है, जिसे दर्शन की भाषा में पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है। सर्वज्ञ होने के बाद भगवान् महावीर ने समस्त जगत् के समग्र प्राणियों के कल्याण तथा श्रेयस के लिए धर्म-देशनाएं दीं। उनकी धर्म-देशनाओं के सन्दर्भ में बड़ा सुन्दर क्रम मिलता है। उनके निकटतम सुधिनीत अन्तेवासी गौतम, यद्यपि स्वयं भी बहुत बड़े ज्ञानी थे, पर, लोक-कल्याण की भावना से भगवान महावोर से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे । भगवान उनका उत्तर देते थे । श्रुत का वह प्रधहमान स्त्रोत एक विपुल ज्ञान-राशि के रूप में परिणत हो गया। भगवान महावीर द्वारा अद्धमागधी में उपदिष्ट अर्थागम का आर्य सुधर्मा ने सूत्रागम के रूप में जो संग्रथन किया, अंशतः ही सही, द्वादशांगी के रूप में वही प्राप्त है । श्रुत-परम्परा के (महावीर से उत्तरवर्ती) स्रोत का आयं सुधर्मा से जुड़ने का हेतु यह है कि वे ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी हुए। इसमें कुछ परम्परा-भेद है। भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती श्रमण-परम्परा के अधिनायक आर्य सुधर्मा हुए; इसलिए आगे की सारी परम्परा आयं सुधर्मा को (धर्म-) अपत्य-परम्परा या (धर्म.) वंश-परम्परा कही जाती है। कल्पसूत्र में लिखा है: “जो आज श्रमण-निग्रन्थ विद्यमान हैं, वे सभी अनागार आर्य सुधर्मा की अपत्यपरम्परा के हैं; क्योंकि और सभी गणधर निरपत्य रूप में निर्वाण को प्राप्त हुए।"3 १. सव्वे एए समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुग्विणो समसगणिपिडग धरा रायगिहे नगरे मासिएणं भतेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्सपाहीणा । थेरे इंदमूई थेरे अज्ज सुहम्मे सिद्धिं गए महाबीरे पच्छा देन्नि वि परिनिव्वुया ॥ २०३ ॥ २. बारहवां अंग दृष्टिवाद अभी लुप्त है। ३. जे इमे अज्जताते समणा निगाथा विहरति ए ए गं सव्वे अज्ज सुहम्मस्स अणगारस्स __माहाबच्चिज्जा, भवसेसा नणहरा निरवच्या पोच्छिन्ना। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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