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________________ भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं [ १२९ वसा होने पर संस्कृत की शुद्धता स्थिर नहीं रह सकती थी। शश-षष, पलाश-पलाष, मञ्चक-मञ्जक, जो उल्लिखित किये गये हैं, वे निश्चय ही इसके द्योतक है। दूसरी बात यह है कि संस्कृत के कुछ शब्द लोक-भाषाओं में इतने घुल-मिल गये होंगे कि उनमें उनका प्रयोग सहज हो गया । सामान्यतः वे लोक-भाषा के ही शब्द समझे जाने लगे हों। संस्कृत के क्षेत्र पर इसकी प्रतिकूल प्रति क्रिया हुई। वहां उनका प्रयोग बन्द हो गया। हो सकता है, मापाततः संस्कृतज्ञों द्वारा उन्हें लोक-भाषा के ही शब्द मान लिये गये हों या जानबूझ कर उनसे दुराव की स्थिति उत्पन्न कर ली गयी हो। पतंजलि के मस्तिष्क पर सम्भवतः इन बातों का असर रहा हो; इसलिए वे इन शब्दों की अप्रयुक्तता के कारण होने वाली भ्रान्ति का प्रतिकार करने के लिए प्रयत्नशील प्रतीत होते हैं। शुद्ध वाक-ज्ञान, शुद्ध वाक्-प्रयोग, शुद्ध वाक्-व्यवहार को अक्षुण्ण बनाये रखने की उनको कितनी चिन्ता थी, यह उनके उस कथन से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें उन्होंने अक्षर-समाम्नाय के ज्ञान को परम पुण्य-दायक एवं श्रेयस्कर बताया है। उन्होंने लिखा है : "यह अक्षर-समाम्नाय ही वाक्समाम्नाय है अर्थात् वाक्-वाणी या भाषारूप में परिणत होने वाला है। इस पुष्पित, फलित तथा चन्द्रमा व तारों की तरह प्रतिमण्डित अक्षरसमाम्नाय को शब्द रूप ब्रह्म-तत्त्व समझना चाहिए। इसके ज्ञान से सब वेदों के अध्ययन से मिलने वाला पुण्य-फल प्राप्त होता है। इसके अध्येता के माता-पिता स्वर्ग में गौरवान्वित होते हैं।" साधारणतया भाषा-वैज्ञानिक प्राकृतों को मध्यकालीन आर्य-भाषा-काल में लेते हैं। वे ई० पू० ५०० से १००० ई० तक के समय का इसमें निर्धारण करते हैं। कतिपय विद्वान् ई०पू० ६०० से इसका प्रारम्भ तथा ११०० या १२०० ई० तक समापन स्वीकार करते हैं । स्थूल रूप में यह लगभग मिलता-जुलता-सा तथ्य है। भाषाओं के विकास-क्रम में काल का सर्वथा इत्थंभूत अनुमान सम्भव नहीं होता। मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा-काल को प्राकृत काल भी कहा जाता है। यह पूरा काल तीन भागों में और बांटा जाता है-प्रथम प्राकृत-काल, द्वितीय प्राकृत-काल, तृतीय प्राकृत-काल। प्रथम प्राकृत-काल प्रारम्भ से अर्थात् ई० पू० ५०० से ई० सन् के आरम्भ तक माना जाता है। इसमें पालि तथा शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है। दूसरा काल ई० सन् से ५०० ई० तक का माना जाता है । १. सो ऽ यमक्षरसमाम्नायो वाक्समाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो रितव्यो ब्रह्मराशिः, सर्ववेदपुण्यफलावातिश्चास्य ज्ञाने भवति, मातापितरौ चास्य स्वर्ग लोके महीयेते। . -महाभाष्य, द्वितीय आह निक, पृ० ११३ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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