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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ इसमें प्रवृत्त भाषा प्राकृत के नाम से अभिहित की गयी है। प्राकृत के अन्तर्गत कई प्रकार की प्राकृतों का समावेश है, जिनके स्वतन्त्र रूप स्पष्ट हो चुके थे। तीसरे काल की अवधि ५०० ई० से १००० ई. तक मानी जाती है। इसकी भाषा का नाम अपभ्रंश है, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकास था।
पं० हरगोविन्ददास टी० सेठ ने भी पाइअसहमहष्णवो की भूमिका में इस प्राकृत-काल को, जिसे उन्होंने, द्वितीय स्तर की प्राकृतों का समय कहा है, तीन युगों में विभक्त किया है। प्रस्तुत प्रसंग में यह विशेष उपयोगी है; मतः यहाँ उद्धत किया जा रहा है :
प्रथम युग ( रिव्रस्त पूर्व ४०० ई० से रिव्रस्त के बाद १०० ई०)
(क) हीनयान बौद्धों के त्रिपिटक, महावंश और जातक प्रभृति ग्रन्थों की पालि
भाषा।
(ख) पैशाची और फूलिका पैशाची। (ग) जैन भागम-प्रन्थों की अद्धमागधी भाषा । (घ) अंग-ग्रन्थ-भिन्न प्राचीन सूत्रों को और पउमचरिउ आदि प्राचीन ग्रन्थों की जैन
महाराष्ट्री भाषा। (छ) अशोक-शिलालेखों की एवं पस्वर्ती-काल के प्राचीन शिलालेखों की भाषा ।
(घ) अश्वघोष के नाटकों की भाषा। मध्ययुग (रिवस्तीय १०० से ५०० ) (क) त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित भासरचित नाटकों और बाद के कालिदास प्रभृति के
माटकों की शौरसेनी, मागधी पौर महाराष्ट्री भाषाए। () सेतुबन्ध, गाथा सप्तशती आदि काव्यों की महाराष्ट्री भाषा। (ग) प्राकृत-व्याकरणों में जिनके लक्षण मोर उदाहरण पाये जाते हैं, वे महाराष्ट्री,
शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पदाची भाषाए। (घ) दिगम्बर जैन ग्रन्यों की शौरसेनी और परवर्ती-काल के श्वेताम्बरों की जेन महाराष्ट्री
भाषा। (क) पण्ड के व्याकरण में निर्दिष्ट मौर विक्रमोर्वशीय में प्रयुक्त अपभ्रंश भाषा । शेषयुग (रिवस्तीय ५०० से १००० वर्ष)
भिन्न-भिन्न प्रदेशों की परवर्ति-काल की अपनश भाषाए।
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