________________
भाषा और साहित्य ]
अर्थ को अनभिलाप्यता
अर्थ को वाभगम्यता या वागगभ्यता के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करने के अभिप्राय से भाष्यकार लिखते हैं: "अयं अनभिलाप्य है - वह अभिलाप या निबंधन का विषय नहीं है । इसलिए शब्दरूपात्मक नहीं है । ऐसी स्थिति में अर्थ का किस प्रकार कथन करा सकते हैं ? शब्द का फल अर्थ - प्रत्यायन है - वह अर्थ की प्रतीति कराता है । इसलिए शब्द में अर्थ का उपचार किया गया है । इस दृष्टिकोण से अर्थ-कथन का उल्लेख किया गया है ।
पुनः आशंका करते हैं---" तब ऐसा कहा जा सकता है, अर्हत् अर्थ - प्रत्यायक सूत्र ही भाषित करते हैं, अर्थ नहीं । गणधर उसी का संचयन करते हैं । तब दोनो में क्या अन्य हुआ है ?"
आष (अद्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय
समाधान दिया जाता है - "अर्हत् पुरुषापेक्षया - गणधरों की अपेक्षा से स्तोक-थोडा सा कहते हैं, वे द्वादशांगी नहीं कहते; अतः द्वादशांगी की अपेक्षा से वह (अर्हत्-भाषित) अर्थ है तथा गणधरों की अपेक्षा से सूत्र 11
मातृका पद
उत्पाद, व्यय aur gate मूलक तीन पद, जो महंतु द्वारा भाषित होते हैं, मातृका पद कहे जाते हैं । उस सम्बन्ध में भाष्यकार लिखते हैं : "अंगावि सूत्र रचना से निरपेक्ष होने के कारण (तीन) मातृका पद अर्थं कहे जाते हैं । जिस प्रकार द्वादशांग प्रषचन- संघ के लिए हितकर है, उस प्रकार वे ( मातृका पद ) हितकर नहीं हैं। संघ के लिए वही हितकर है, जो सुखपूर्वक ग्रहण किया जा सके । वह गणधरों द्वारा रचित बारह प्रकार का श्रुत है। वह निपुण - नियतगुण या निर्दोष, सुक्ष्म तथा महान् - विस्तृत अर्थ का प्रतिपादक है ।'
2
१. नणु अत्थोऽण भिलप्पो स कहं भासह न सद्दरूवो सो । सम्मि तदुवयारो अत्थपच्चायणफल म्मि ॥
तो सुत्तमेव भासह अत्थपच्चायगं, न नामत्थं । गणहारिणोऽवि तं चिय करिंति को पइविसेसो त्थ । सौ पुरिसा वेषखाए थोवं भणइ न उ बारसंगाई । अत्यो तदविषखाए सुत्तं चिय गणहराणं तं ॥
- विशेषावश्यक भाष्य, ११२०-२२ २. अंगाइ सुत्तरयणानिरवेक्खो जेण तेण सो अत्थो । अहवा न सेसपवयणहियउत्ति जह बारसंगयिणं ॥ पवयण हियं पुण तयं जं सुहगहणाइ गणहरेहिंतो । बारसविहं पवत्तs निउणं सुहुमं महत्यं च ॥ निययगुणं वा निउणं निद्दोसं गणहराऽहवा निउणा । तं पुण किमाइ -पज्जतमाणमिह को वा से सारो ॥
वही, ११२३-२५
Jain Education International 2010_05
[ ३६३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org