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________________ ३६४ ] आगम और त्रिपिटक एक अनुशोलन [ खण्ड: २ भाष्यकार ने द्वादशांगात्मक आगम-रचना के हेतु, परम्परा, क्रम, प्रयोजन आदि के सन्दर्भ में बहुत विस्तार से जो कहा है, उनका मानसिक झुकाव यह सिद्ध करने की ओर विशेष प्रतीत होता है कि आगमिक परम्परा का उद्गम स्रोत तीर्थंकर है; अतः गणधरों का कर्तृत्व केवल नियू हण, संकलन या ग्रथन मात्र से है । वैदिक परम्परा में वेद अपौरुषेय माने गये हैं । परमात्मा ने ऋषियों के मन में वेद -ज्ञानमय मन्त्रों की अवतारणा को । ऋषियों ने अन्तश्चक्षुओं से उन्हें देखा । फलत: शब्दरूप में उन्होंने उन्हें अभिव्यंजना दी। ऋषि मन्त्र द्रष्टा थे, मन्त्र स्रष्टा नहीं । इसी प्रकार भाष्यकार द्वारा व्याख्यात किये गये तथ्यों से यह प्रकट होता है, गणधर वास्तव में आगम स्रष्टा नहीं थे, प्रत्युत् वे अहंत्-प्ररूपित श्रुत के द्रष्टा या अनुभविता मात्र थे । जो उनके दर्शन और अनुभूति का विषय बना, उन्होंने शब्द रूप में उसकी अवतारणा को । भारतवर्ष की प्रायः सभी प्राचीन धार्मिक परम्पराओं का यह सिद्ध करने का विशेष प्रयत्न देखा जाता है कि उनका वाडमय अपौरुषेय, अनादि, ईश्वरोय या आषं है । पूर्वात्मक ज्ञान और द्वादशांग जैन वाङमय में ज्ञानियों को दो प्रकार की परम्पराएं प्राप्त होतो हैं : पूर्वत्रय और द्वादशांग त्रेता । पूर्वी में समत्र श्रुत या वाक्-परिस ज्ञान का समावेश माना गया है । वे संख्या में चतुर्दश हैं । जैन श्रमणों में पूर्वत्ररों का ज्ञान को दृष्टि से उच्च स्थान रहा है । जो श्रमण चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे, उन्हें श्रुत केवल कहा जाता था । पूर्व - ज्ञान की परम्परा एक मत ऐसा है, जिसके अनुसार पूर्व-ज्ञान भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती समय से चला आ रहा था । महावीर के पश्चात् अर्थात् उत्तरवर्ती काल में जो वाङमय सर्जित हुआ, उससे पूर्व का होने से वह (पूर्वात्मक ज्ञान ) 'पूर्व' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । उसकी अभिघा के रूप में प्रयुक्त 'पूर्व' शब्द सम्भवतः इसी तथ्य पर आघ्रत है । द्वादशांगी से पूर्व पूर्व - रचना एक दूसरे अभिमत के अनुसार द्वादशांगी को रचना से पूर्व गणवरों द्वारा अहंदू भाषित तीन मातृका पदों के आधार पर चतुर्दश शास्त्र रचे गये, जिनमें समग्र श्रुत की अवतारणा की गयी - आवश्यक- नियुक्ति में ऐसा उल्लेख है 11 १. धम्मोवाओ पवयणमहवा पुत्राई देसया तस्स । सजिणाण गणहरा चोट्सपुत्री उ ते तस्स ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकाय भावणा पढमं । एस धम्मोवादो जिणेहिं सव्वेहिं उबट्टो || Jain Education International 2010_05 - आवश्यक नियुक्ति, गाथा २९२-९३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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