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________________ ४९२ ] आगम और fafपटक : एक अनुशीलन [ ww: { मरिण, सुरभिमय पदार्थो में गोशीर्ष चन्दन तथा रत्नों में हीरा उसम है, उसी प्रकार साधना-क्रमों में संस्तारक परम श्रेष्ठ है । श्रौर भी बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा गया है कि तृणों का संस्तारक बिछा कर उस पर स्थित हुधा श्रमल मोक्ष-सुख की अनुभूति करता है । इस प्रकीर्णक में ऐसे अनेक मुनियों के कथानक दिये गये हैं, जिन्होंने संस्तारक पर आसीन होकर पण्डित मरण प्राप्त किया । गुणरत्न ने इस पर अवचूरि की रचना की । ७. गच्छायार (गच्छाचार) गच्छ एक परम्परा या एक व्यवस्था में रहने वाले या चलने वाले समुदाय का सूचक है, जो आचार्य द्वारा अनुशासित होता है । जब अनेक व्यक्ति एक साथ सामुदायिक या सामूहिक जीवन जीते हैं, तो कुछ ऐसे नियम, परम्पराएं, व्यवस्थाएं मान कर चलनापड़ता है, जिससे सामूहिक जीवन समीचीनता, स्वस्थता तथा शान्ति से चलता जाए । श्रमरणसंघ के लिए भी यही बात है । एक संघ या गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों को कुछ विशेष परम्परानों तथा मर्यादाओं को लेकर चलना होता है, जिनका सम्बन्ध साध्वाचार, अनुशासन, पारम्परिक सहयोग, सेवा और सौमनस्यपूर्ण व्यवहार से है । सामष्टिक रूप में वही सब सम्प्रदाय, गण या गच्छ का आचार कहा जाता है । आधुनिक भाषा में उसे संघीय आचार संहिता के नाम से अभिहित किया जा सकता है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में इन्हीं सब पहलुओं का वर्णन है । इस प्रकीर्णक में कुल एक सौ सैंतीस गाथाएं हैं, जिनमें कतिपय अनुष्टुप् छन्द में रचित हैं तथा कतिपय आर्या छन्द में । महानिशीथ, वृहत्कल्प श्रीर व्यवहार आदि छेद-सूत्रों का वर्णन पहले किया ही गया है, जिनमें साधु-साध्वियों के प्राचार, उनके द्वारा ज्ञातअज्ञात रूप में सेवित दोष, तदर्थ प्रायाश्चित विधान प्रादि से सम्बद्ध विषय वरिंगत हैं । कहा जाता है, इन ग्रन्थों से यथापेक्ष सामग्री संची कर एक गच्छ में रहने वाले साधुसाध्वियों के हित की दृष्टि से इस प्रकीर्णक की रचना की गयी। इसमें गच्छ के साधु, साध्वी, श्राचार्य, उन सबके पारस्परिक व्यवहार, नियमन आदि का विशद विवेचन है । गच्छ के नायक या आचार्य के वर्णन प्रसंग में एक स्थान पर उल्लेख है कि जो आचार्य स्वयं ग्राचार भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचारियों का नियंत्रण नहीं करते अर्थात् आचार भ्रष्टता की उपेक्षा करते हैं, स्वयं उन्मार्गमागी हैं, वे मार्ग और गच्छ का नाश करने वाले हैं । ज्यायान् एवं कनीयान् साधुओं के पारस्परिक वैयावृत्य, विनय, सेवा, आदर, सद्भाव आदि का भी इस ग्रन्थ में विवेचन किया गया है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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