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१३२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २ षडभाषाचन्द्रिका में "प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता"-संस्कृत रूप प्रकृति का विकार-विकास प्राकृत माना गया है, ऐसा विवेचन किया है। प्राकृत संजीवनी में कहा गया है कि "प्राकृतस्य सर्वमेव संस्कृतं योनिः" -प्राकृत का मूल स्रोत सर्वथा संस्कृत ही है। नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् धनिक ने दशरूपक में "प्रकृतिः आगतं प्राकृतम्, प्रकृति संस्कृतम्"-जो प्रकृति से मागत है, वह प्राकृत है और प्रकृति संस्कृत है, ऐसा विश्लेषण किया है । सिंहदेवगणी ने वाग्भटालंकार को टीका में "प्रकृतेः संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्"संस्कृत रूप प्रकृति से जो भाषा आई-उद्भूत हुई, वह प्राकृत है, ऐसी व्याख्या की है। काव्यादर्श के टीकाकार प्रेमचन्द्र तकंवागीश ने लिखा है : "संस्कृतरूपायाः प्रकृतेः उत्पन्नत्वात प्राकृतम्"-संस्कृतरूप प्रकृति से उत्पन्नता के कारण यह भाषा प्राकृत नाम से अभिहित हुई है। नारायण ने रसिक-सर्वस्व में प्राकृत और अपनश के उद्भव की चर्चा करते हुए कहा है : "संस्कृतात् प्राकृतमिष्टम् ततोऽपभ्रंशमाषणम्"-संस्कृत से प्राकृत और उससे अपन अस्तित्व में आई।
प्राकृत के वैयाकरणों तथा काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के कतिपय टीकाकारों के उपयुक्त विचारों से सामान्यतः यह प्रकट होता है कि उन सब की प्रायः एक ही धारणा थी कि संस्कृत से प्राकृत का उद्भव हुआ है। सबसे पहले यह विमर्षणीय है कि संस्कृत का अर्थ है संस्कार, परिमार्जन या संशोधन की हुई भाषा है, तब उससे प्राकृत जैसी किसी दूसरी भाषा का उद्भूत होना कैसे सम्भव हो सकता है ? या तो प्राकृत के उपयुक्त वैयाकरणों और काव्यशास्त्रीय विद्वानों ने भाषा-तस्व या भाषा-विज्ञान की दृष्टि से सोचा नहीं पा या उनके कहने का अभिप्राय कुछ अन्य था ।
प्रकृति शब्द का मुख्य अर्थ जन-साधारण या स्वभाव होता है । जन-साधारण की भाषा या स्वाभाधिक भाषा-वस्तुतः प्राकृत का ऐसा ही अर्थ होना चाहिए । अग्रिम प्रकरणों में की गयी कुछ विद्वानों के मतों को चर्चा से यह संगत प्रतीत होगा।
उपयुक्त विद्वानों ने यदि वस्तुतः संस्कृत को प्राकृत का मूल स्रोत स्वीकार किया हो, इसी अर्थ में संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहा हो तो यह विचारणीय है। जैसा कि सिद्ध है, संस्कृत भाषा व्याकरण से सर्वथा नियमित एवं प्रतिबद्ध हो चुकी थी। ऐसा होने के अनन्तर भाषा का अपना स्वरूप सो यथावत् बना रहता है, पर, उसका विकास रुक जाता है । उससे किसी नई भाषा का प्रसूत होना सम्भव नहीं होता, क्योंकि वह स्वयं किसी बोलचाल की भाषा (जन-भाषा) के आधार पर संस्कार-युक्त रूप धारण करती है । आचार्य हेमचन्द्र जैसे विद्वान्, जिनकी धार्मिक परम्परा में प्राकृत को जगत् की आदि भाषा तक कहा गया है, इसे संस्कृत से निःसुत माने, पह कैसे सम्भव हो सकता है ? भाचार्य हेमचन्द्र भादि घेयाकरणों ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति के रूप में जो निरूपित किया है, उसका For Private & Personal Use Only
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