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२६.] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २ ( ब्राह्मी ) की सम्पूर्णता साधित हुई। कोई-कोई फिनिशीय अक्षरों से ब्राह्मी अक्षरों की उत्पत्ति स्वीकार नहीं करते थे। वे अनुमान करते थे कि भारतवर्ष की मायभाषी जनता द्वारा सम्पूर्ण स्वतन्त्र रूप से, किसी प्रकार की मौलिक चित्र-लिपि से, ब्राह्मी की उत्पत्ति हुई है, सम्प्रति मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा में मिली सैकड़ों मुद्रालिपियों से एक नया मत प्रतिपादित हो रहा है कि प्राग-आयं युग की चित्र-लिपि का विकास ही ब्राह्मी-लिपि है। जो कुछ भी हो, यह बात ठीक है कि ई० पू० १००० के लगभग, अशोक आदि मौर्य सम्राटों के काल में व्यवहृत हमारी प्राप्त ब्राह्मी-लिपि की प्रतिष्ठा का काल माना जा सकता है।" ___ डा. चटर्जी ने कई विचारधाराओं का नवनीत उपस्थित करते हुए यहां जो संकेत किया है, प्रस्तुत प्रकरण के उपसंहार में समीक्षात्मक विवेचन के सन्दर्भ में यह उपयोगी होगा।
भारत में लिपि-कला
ऋग्वेद प्रभृति वेद
भारतीय वाङमय में प्राचीनता की दृष्टि से ऋग्वेद का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय वाङमय ही नहीं, भारोपीय भाषा परिवार के समस्त उपलब्ध साहित्य में भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उसका असाधारण महत्व है। ऋग्वेद में यत्र-तत्र इस प्रकार के संकेत ढूढ़े जा सकते हैं, जो लेखन-परम्परा के अस्तित्व को प्रकट करते हैं। उदाहरणार्थ, एक प्रयोग है"सहस्र मे वदतो अष्टकर्ण्य:' । यहां आठ कानों वाली हजार गौए देने का उल्लेख है । अष्टकर्ण्य का अभिप्राय उन गौओं से है, जिनके कानों पर किसी कारण से, जो धार्मिक परम्परा से सम्बद्ध हो सकता था अथवा किसी शुभ फल का द्योतक हो सकता था, आठ का अंक लिखा जाता रहा होगा । वसी गोओं को अष्टकर्णी कहा जाता होगा। आठ का अंक लिखने का ज्ञान होने का स्पष्ट आशय यह है कि ऋग्वेद के काल में लेखन-परम्परा या लिपि-कला विकसित रूप में थी।
ऋग्वेद में गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों के नाम प्राप्त होते हैं। छन्दों के नाम प्राप्त होने का अर्थ है, धर्णों या मात्राओं की एक निश्चित संख्या-बद्ध पंक्ति-सूचक रचना, जिससे लिपि-ज्ञान का अस्तित्व सिद्ध होता है।
वाजसनेयी संहिता अर्थात् शुक्ल यजुर्वेद संहिता में इस प्रकार के संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे लिपि के अस्तित्व का सूचन होता है। कृष्ण यजुर्वेद की काष्क संहिता, मैत्रायणी संहिता और दैतिरीय संहिता में कई छन्दों का उल्लेख है तथा उनके पादों के वर्गों की संख्या
१. भारत की भाषाएं और भाषा सम्बन्धी समस्याए', पृ० १७०-७१
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