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भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए [ १२७
पतंजलि कुछ आगे और कहते हैं-"सुना जाता है कि "यणिः तर्वाणः" नामक ऋषि थे। वे प्रत्यक्ष धर्मा-धर्म का साक्षात्कार किये हुए थे। पर और अपर-परा और अपरा विद्या के ज्ञाता थे। जो कुछ ज्ञातव्य-जानने योग्य है, उसे वे जान चुके थे। वे वास्तविकता को पहचाने हुए थे। वे आदरास्पद ऋषि "यद् वा न: तद् वा नः"-ऐसा प्रयोग जहां किया जाना चाहिए, यहां "यर्वाणः तर्वाणः" ऐसा प्रयोग करते । परन्तु, याज्ञिक कम में अपभाषण-अशुद्ध शब्दों का उच्चारण नहीं करते थे। असुरों ने याज्ञिक कम में अपभाषण किया था; अतः उनका पराभव हुआ।"
पतंजलि के कहने का अभिप्राय यह है कि पेदिक परम्परा के विद्वान् पण्डित भी कभीकभी बोलचाल में लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग कर लेते थे। इसे तो वे क्षम्य मान लेते हैं, परन्तु, इस पहलू पर जोर देते हैं कि यज्ञ में अशुद्ध भाषा कदापि व्यवहृत नहीं होनी चाहिए। वैसा होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उनके कथन से यह अभिव्यंजित होता है कि इस बात की बड़ी चिन्ता व्याप्त हो गयी थी कि लोक-भाषाओं का उत्तरोत्तर बढ़ता हुमा प्रवाह याज्ञिक कर्म-विधि तक कहीं न पहुंच जाये। वे यहां तक कहते हैं : “याज्ञिकों के शब्द हैं कि यदि आहिताग्नि ( याज्ञिक अग्न्याधान किये हुए व्यक्ति ) द्वारा अपशब्द का प्रयोग हो जाये, तो उसे उसके प्रायश्चित-स्वरूप सारस्वती-दृष्टि-सारस्वत ( सरस्वती देवता को उद्दिष्ट कर ) यज्ञ करना चाहिए।"
एक स्थान पर पतंजलि लिखते हैं : ........ जिन प्रतिपादकों का विधि-वाक्यों में ग्रहण नहीं किया गया है, उनका भी स्वर तथा वर्णानुपूर्वी के शान के लिए उपदेश-संग्रह इष्ट है, ताकि शश के स्थान पर षष, पलाश के स्थान पर पलाष और मञ्चक के स्थान पर मञ्जक का प्रयोग न होने लगे।"3
१. एवं हि श्रूयते-यणस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवुः प्रत्यक्षधर्माणः परावरज्ञा विदित
वेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः। ते तत्र भवन्तो यद्धान इति प्रयोक्तव्ये यर्वाणस्तर्वाण इति प्रयुंजते. याज्ञ पुनः कर्मणि नापभाषन्ते। तैः पुनरसुरैर्याने कर्मण्यपभाषितम्, ततस्ते पराभूताः।
-महाभाष्य, प्रथम माह निक, पृ० ३७-३८ १. याशिकाः पठन्ति आहिताग्निरपशब्द प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्टिं निर्वपेत् ।
-वही, पृ. १४ २. .... यानि तह र्यगृहणानि प्रातिपदिकानि, एतेषामपि स्वरवर्णानुपूर्वी मानार्थ उपदेशः कर्तव्यः । शशः षष इति मा भूत् । पलाशः पलाष इति मा भूत् । मञ्चको मञ्जक इति मा मूत् ।
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-वही, पृ०४८ For Private & Personal Use Only
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