________________
२८०
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन चण्डे । का विषय था । एक ओर श्वेताम्बर आचार्य वादी देवसूरि थे तथा दूसरी ओर दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र । प्रभावक-चरित में इस शास्त्रार्थ की चर्चा है। वहां लिखा है : "शान्तिसूरि द्वारा उत्तराध्ययन पर रचित टीका, जो प्रतिवादी रूपी नागों को मंत्र-रुद्ध-सा कर देने वाली थी, से अधिगत स्त्री-निर्वाण सम्बन्धी युक्तियां उपन्यस्त कर मुनिचन्द्र के शिष्य देवसूरि ने सिद्धराज जयसिंह के समक्ष दिगम्बर विद्वान् (कुमुदचन्द्र) को जीत लिया।"
'स्त्री-निर्वाण-केवलि-भुक्ति-प्रकरण' के सम्पादक मुनि जम्बूविजयजी ने ऐसी संभावना की है कि शान्तिसूरि (थारापद्रगच्छीय वादिवेताल शान्तसूरि) (११वीं शती ई०) ने उत्तराध्ययन सूत्र की जो पाइय नामक टीका रची, जिसके सहारे वादी देवसूरि (१२वीं शती ई०) ने कुमुदचन्द्र को पराजित किया, का स्त्री-निर्वाण-सम्बन्धी अंश लिखते समय, हो सकता है, उन्होंने शाकटायन द्वारा विवेचित स्त्री-निर्वाण-सम्बन्धी प्रकरण को अपने समक्ष रखा हो। यह संभावना बहुत संगत जान पड़ती है ।
इस घटना को यहां उपन्यस्त करने का प्रयोजन उक्त विषयों के तार्किक व दार्शनिक विश्लेषण तथा ऊहापोह के सम्बन्ध में उपस्थित प्रसंगों पर शाकटायन का उक्त ग्रन्थ कितनी महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि देता रहा, इसे स्पष्ट करना है।
श्वेताम्बर ग्रन्थकारों में अभयदेव (११वीं शती ई०) वादी देवसूरि (१२वीं शती ई०) तथा यशोविजय (१७वीं शती ई०) आदि ने अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में स्त्री-निर्वाण तथा केवलि-कवलाहार के विवेचन के प्रसंग में प्रायः शाकटायन का ही अनुसरण किया है।
जहां श्वेताम्बर विद्वानों ने उक्त विषयों के पोषण और पुष्टीकरण के लिए इस ग्रन्थ का सहारा लिया, वहां दिगम्बर विद्वानों ने स्त्री-निर्वाण तथा केवलि-कवलाहार के खण्डन का प्रसंग पाने पर शाकटायन के निरूपण को ही पूर्व पक्ष के रूप में स्वीकार किया। यों उक्त विषयों के मण्डन तथा खण्डन-दोनों अपेक्षाओं से इस ग्रन्थ का उपयोग होता रहा।
१. उत्तराभ्ययन-प्रग्य-टीका श्री शान्तिसूरिभिः ।
विवर्ष वाबिनागेन्द्र-सन्नागदमनी हि सा ॥ शिष्येण मुनिचन्द्रस्य सूरेः भीदेवसूरिणा। तन्मयत उपन्यस्त-स्त्री निर्वाणवलागिह ।। पुरः भीसिद्धराजस्य जिठो बावे दिगम्बरः। तबीयवचसा मिश्रा विद्वदुः साधसाधिका ॥
-प्रभावक-परित, १९-९१
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org