SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 629
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७९ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय यापनीय तंत्र का उद्धारण उपस्थित किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि यापनीय मत का यापनीय तंत्र नामक कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा है, जिसमें यापनीय मत के सिद्धान्तों का विवेचन रहा होगा । वह ग्रन्थ प्राकृत में था, अब प्राप्त नहीं है । আব্দাবন ঐ স্বশ্ব *ী খৎনা शाकटायन के स्त्री-निर्वाण-क्रेवलि-भुक्ति-प्रकरण ग्रन्थ की कुछ विशेषताएं हैं। वह प्रांजल संस्कृत में रचित है । दार्शनिक विषयों को ताकिक शैली द्वारा संक्षिप्त शब्दावली में प्रभावक रूप में व्याख्यात करने में संस्कृत की अपनी विलक्षणता है। शाकटायन ने प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका पूरा उपयोग किया है । दार्शनिक-पद्धति से पूर्व-पक्ष-निरसन पूर्वक उत्तर पक्ष या सिषाधयिषित विषय का स्थापन, दतर्थ आगम, नियुक्ति, भाष्य आदि आर्ष व आर्षोपम ग्रन्थों के अपेक्षित प्रसंगों का उपस्थापन आदि द्वारा शाकटायन के स्त्री-निर्वाण और केवलि-कवलाहार का इतना मार्मिक, तलस्पर्शी एवं सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि शताब्दियों तक यह ग्रन्थ इन विषयों के युक्तियुक्त तथा सबल निरूपण की दृष्टि से प्रतिष्ठापा रहा । केवल यापनीय ही नहीं, श्वेताम्बर विद्वानों ने भी इस ग्रन्थ का पूरा उपयोग किया । उक्त दो विषयों में स्वपज्ञस्थापन की दृष्टि से श्वेताम्बर विद्वानों के लिए यह एक आधारभूत ग्रन्थ बना रहा । श्वेताम्बर लेखक उक्त विषयों के प्रतिपादन के सन्दर्भ में अपनी कृतियों में इसका उपयोग करते रहे । ৰাধী খুব ৰ স্বৰৰ যাত্ব सिद्धराज जयसिंह (वि० सं० ११४३-११९९) विद्यारसिक और तत्त्वानुरागी राजा था। उसकी राज-सभा में एक शास्त्रार्थ हुआ । निवदिषित विषयों में मुख्य स्त्री-निर्वाण १. .......... स्त्री ग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो भवतीति ज्ञापनार्थ वचः यथोक्त यापनीय-तन्त्र-णो खलु इत्थी अजीवो, ण यावि अमव्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी, णों अमानुसा, णो अणारि (य) उप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, णो अकूरमई, णो ण उबसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ववसायवज्जिया, जो अपुष्वकरणविरोहिणी, णो णवगुणट्ठाणरहिया, णो अजोग्गा लद्धीए, णो अकल्लाणमायणं त्ति कहं न उत्तम-धम्मसाहिगत्ति । -ललितविस्तरा, पृ० ४०२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy