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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
प्रतीच्य भाषाओं का उद्गम-स्थान थी। यास्क जिन परिस्थितियों में थे, उनके लिए यहां तक पहुंच पाना सम्भव नहीं था। भौगोलिक कठिनाइयां भी थीं, यातायात के साधन तथा अन्य अनुकूलताए भी नहीं थीं। ऐसी स्थिति में अपने निर्वचन में वे भारत से बाहर की भाषाओं को भी दृष्टिगत रख पाते, यह सम्भव नहीं था। उस समय यद्यपि उपभाषाओं का प्रचलन पर्याप्त संख्या में था और यास्क ने भी उस प्रकार के संकेत किये हैं, पर, उनका ब्युत्पत्ति के सन्दर्भ में भाषात्मक अनुसन्धान-कार्य उन्हीं प्रचलित भाषाओं की सीमा में है, जो उनके समक्ष थीं। जो भी हुआ, जितना भी हुआ, उस समय की स्थितियों के । परिपार्श्व में स्तुत्य कार्य था । संसार के भाषा-शास्त्रीय विकास के इतिहास में उसका अनुपम स्थान रहेगा। - निघण्टु के रूप में यास्क के सामने वेद के शब्दों की सूची विद्यमान थी, जिसक पांच अध्याय हैं। निरुक्त में निघण्टु में उल्लिखित प्रत्येक शब्द की पृथक-पृथक् व्युत्पत्ति प्रदर्शित की गई है। निरुक्तकार ने निघण्टु के शब्दों का अर्थ स्थापित करने का वास्तव में सफल प्रयास किया है। उन्होंने अपने द्वारा स्थाप्यमान अर्थ की पुष्टि के हेतु स्थान-स्थान पर पेदिक संहिताओं को भी उद्धृत किया है। अर्थ-विज्ञान के सन्दर्भ में इस प्रकार के अध्ययन का विश्व में यह पहला प्रयास था। भारतवर्ष में यास्क के समय तक अर्थ-विज्ञान आदि से सम्बन्धित विषय बहुत चर्चित हो चुके थे । यास्क ने स्वयंऔदुम्बरायण, वार्ष्याय णि, गार्य, गालव, शाकटायन आदि अपने से पूर्ववर्ती या समसामयिक आचार्यों का उल्लेख करते हुए उनके मतों को उद्धृत किया है। उदाहरणार्थ, यास्क ने पद के चार भेद किये है-नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । उस प्रसंग में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्य
औदुम्बरायण का मत उद्धृत करते हुए शब्द के नित्यत्व और अनित्यत्व जैसे गहन विषय की चर्चा की है।' यास्क के अनुसार आख्यात भाव-प्रधान है । उसके सन्दर्भ में उन्होंने भावधिकार के विषय में आचार्य चाायणि के विचार उपस्थित कर अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। वास्तव में यास्क का निरूपण-क्रम अनुसन्धानात्मक और समीक्षात्मक पद्धति पर आधृत है। उतरवर्ती भाषा-वैज्ञानिकों के लिए वह नि:सन्देह प्रेरणादायक सिद्ध हुआ। ..... यास्क के व्यक्तित्व की महत्ता इससे और सिद्ध हो जाती है कि अस्पष्ट शब्दों के लिए उन्होंने आग्रह नहीं किया, अपितु उदारतापूर्वक स्वीकार कर लिया कि वे शब्द उनके लिए स्पष्ट नहीं हैं। उन्होंने शब्दों पर विचार करते हुए भाषा की उत्पत्ति और गठन आदि पर भी जहां-तहां कुछ संकेत किया है। सबसे पहले उन्होंने यह स्थापना की कि प्रत्येक संज्ञा की व्युत्पत्ति धातु से है। यद्यपि यह मत समालोचनीय है, पर, इसका अपना महत्त्व अवश्य है । आगे चलकर महान् व्याकरण पाणिनि ने भी धातु-सिद्धान्त को प्रतिपादित किया ।
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