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________________ २०४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ बोलियां एक क्षेत्र विशेष तक सीमित होती हैं; अतः अन्तरान्तीय दृष्ट्या एक ही भाषाभाषी दो भिन्न प्रदेशों के व्यक्तियों के लिए यह सहज ही सम्भव नहीं होता कि वे उन भिन्न क्षेत्रों की बोलियों को ठीक-ठीक समझ सके। इसी दृष्टि-बिन्दु के सन्दर्भ में तथागत के काल का समीक्षण करना होगा। भगवान बुद्ध की भाषा मगध की शिष्ट भाषा थी। निःसन्देह वे अपने युग के एक क्रान्तिकारी महापुरुष थे। बोधि लाभ के अनन्तर 'बहुजन हिताय बहुजनसुखाय' का अभिप्रेत लिये उनका सन्देश लगभग समस्त उत्तर भारत में व्याप्त हो गया था। अनेक प्रदेशी के पुरुष-स्त्रियां उनके संघ में प्रवजित हुए। उनकी अपनी-अपनी बोलियां थीं। सम्भवतः कार्य-क्षेत्र भी उनको भिन्न-भिन्न मिले होंगे। यह भी हो सकता है, जो भिक्षु जिन-जिन प्रदेशों से आये थे, अधिकांशतः उन - उन प्रदेशों में धर्म प्रचार का कार्य उन्हें सौंपा गया होगा। वहां जिन लोगों में उन्होंने तथागत का सन्देश प्रसारित किया, सम्भव है, उनको भलीभांति हृदयंगम कराने के लिए उन्होंने उन - उन प्रादेशिक भाषाओं या बोलियों को अल्पांशतः ही सही, किसी-न-किसी रूप में व्यवहृत किया होगा। भिक्षुओं को अपनी ओर से उपदेश नहीं देना था, उन्हें तथागत के वचनों से जन - जन को अवगत कराना था; अतः उन वचनों का शाब्दिक रूप उन्हें उन-उन प्रदेशों के साधारण जनों द्वारा समझी जा सकने योग्य शैली में प्रस्तुत करना पड़ा होगा। सारांश यह है, भिक्षुओं ने बुद्ध-वचन स्मृतिगत तो किया उसी शब्दावली में, जिसमें स्वयं तथागत ने भाषित किया था, पर, उसके रूप में मौलिकतया तो नहीं, परन्तु, शाब्दिक आदि दृष्टि से गोणतया परिवर्तन की यत्किंचित् स्थिति अवश्य आई होगी। संगीतियों की लम्बी कालावधि से यह ध्वनित होता है कि विभिन्न प्रदेशों से आने वाले भिक्षुओं की स्मृति में बुद्ध-वचन के जो पाठ थे, उन्हें तुलनात्मक रूप में मिलाया जाता रहा होगा। भेदों के अपाकरण के लिए एक सर्वसम्मत पाठ स्वीकृत किया जाता रहा होगा। इसका प्रयोजन हुआ कि बुद्ध वचनों के स्वरूप में परिष्कार आता गया; यद्यपि तत्वतः उनकी मौलिकता नहीं मिटी । परिष्कार और संस्कार तो होता गया, पर, बुद्धवचन में कोई बड़ा परिवर्तन जैसा नहीं हुआ। बुद्ध ने जिस शिष्ट मागधी ( भाषा ) को उपदेशों का माध्यम बनाया था, वह भी आस-पास की प्रादेशिक बोलियों का एक सम्मिश्रित जैसा रूप लिये हुए थी। पहली संगीति के लगभग एक शती के अनन्तर जो दूसरी संगीति धैशाली के बालुकाराम में हुई, उसमें आठ मास का समय लगा। ऐसा प्रतीत होता है, राजगृह में वेभार गिरि की संगोति में घिनिश्चित त्रिपिटक का पाठ इन सौ वर्षों में प्रादेशिक अनुकूलता के कारण इतना रूपान्तय, अधिकांशतः चाहे शाब्दिक ही सही, अघश्य ले चुका होगा कि पाठों के समन्वय तथा अन्ततः निर्धारण में विभिन्न प्रदेशों से समागत भिक्षुओं को इतनी लम्बी अवधि तक ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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