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________________ भाषा और साहित्य | पालि-भाषा और पिटक-वाङमय [२.५ चिन्तन-मनन तथा ऊहापोह करना पड़ा होगा। यद्यपि इस संगीति के आयोजित करने का मुख्य कारण वैशाली के भिक्षुओं के आचार से सम्बद्ध था। पर, यदि केवल आचार-निर्णय ही एकमात्र उद्देश्य होता, तो हरकोई सोच सकता है, आठ मास कैसे लगते ? संगोति में सम्मिलित सातसो भिक्षुओं को वैशालिक भिक्षुओं के आचार पर निर्णय देना तो था ही, साथ-ही-साथ उससे भी गुरुतर कार्य, जो उनके लिए करणीय था, वह था, त्रिपिटक के पाठ का समन्वय और परिष्कार, जो उन्होंने बड़ी लगन से किया। बौद्ध धर्म का वह उत्कर्ष-काल था । समय बीतने के साथ-साथ बौद्ध धर्म की अभिवृद्धि होती गयी। भिक्षुओं की विहार-यात्राए और दूर-दूर होने लगीं। बुद्ध-वचनों का घोष व्यापक रूप में मुखरित होने लगा। पर, धीरे-धीरे वही सब कुछ होता गया, जो पिछली संगीति के पश्चात् हुआ था। परिणामतः तीसरी संगीति में मिथ्यावादियों के निराकरण और निष्कासन का कार्य तो हुआ ही, पाठ-परिष्कार का ऐतिहासिक कार्य भी सम्पन्न हुआ। नौ महीनों का लम्बा समय लगने का यही रहस्य है। तीन संगीतियों की समीक्षा के पश्चात् एक दूसरे मोड़ पर आते हैं। राजकुमार महेन्द्र शैशव से ही उज्जयिनो में रहे थे। पिता सम्राट अशोक की भावना का आदर करते हुए वे भिक्षु-संघ में दीक्षित हो जाते हैं और तथागत के धर्मदूत के रूप में सिंहल जाते हैं। महेन्द्र मगध-नरेश के पुत्र थे, पर, उज्जयिनी में रहने के कारण उनकी भाषा मागधी नहीं थी। उज्जयिनी को बोलचाल की भाषा-प्राकृत, जो अनिवार्य रूप से पश्चिमी प्रभाव लिये हुए थी, उनकी मातृ-भाषा थी। महेन्द्र त्रिपिटक साथ में लेते गये। क्या यह सम्भावित नहीं हो सकता कि महेन्द्र के माध्यम से लंका पहुंचने वाले त्रिपिटक पर उज्जयिनी की भाषा का कुछ भी प्रभाव न रहा हो ? अनेक स्थितियों में से गुजरते हुए त्रिपिटक लंका पहुंचते हैं और वहां भी लम्बे समय तक उनका मौखिक पठन-पाठन ही चलता है। पर, लंका पहुंचने के पश्चात् उनके स्वरूप में अन्तर आने की स्थितियां सम्भवतः उत्पन्न नहीं होतीं। उत्तर भारत के विभिन्न प्रदेशों में पहुंचने पर त्रिपिटक की शब्दावली में न चाहते हुए भी जो रूपान्तरण की स्थिति पैदा हो जाती थी, वह लंका में नहीं रही। महेन्द्र द्वारा त्रिपिटक के लंका पहुंचने और लंका-नरेश वडगामणि अभय के शासन-काल में उनके लिपि-बद्ध होने के बीच दो संगीतियां हुई, पर, सम्भवतः वे परम्परा-निर्वाह मात्र के लिए हुई हों। उनका महत्व केवल नाम मात्र का था। त्रिपिटक के सन्दर्भ में विशेष कुछ करणीय नहीं था, जो उन संगीतियों में किया जाता। तथागत ने अपने उपदेशों में जिस मागधी को ग्रहण किया, वह उपलब्ध त्रिपिटक में क्या यथावत् रूप में विद्यमान रह सकी है, निश्चित रूप में कुछ कहा नहीं जा सकता। विधाय, कपन Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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