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________________ ५६६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड २ पुनर्नाग्न्यिलिंगाः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा काष्ठासंघ मूलसंघ- माथुरसंघ - गोप्यसंघ मेदात् । काष्ठासंघे चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसंघे मायूरपिच्छे : पिच्छिका, माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिका माहता, गोप्या मायूर पिच्छिकाः । आद्यास्त्रयोऽपि संधा वन्द्यमाना धर्मवृद्धि भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति, केवलिनां भुक्ति सद्व्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्ति च न मन्वते, गोव्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति, केवलिनां भुक्तिं च मन्यते । गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते । सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशवन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः । शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरैस्तुल्यम्, नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केव्वपरी भेदः । 1 गुणरत्न के अनुसार गोप्य और यापनीय पर्यायवाची हैं । गोप्यों अर्थात् यापनीयों के सिद्धान्तों में यहां स्त्री-मुक्ति तथा केवलि भुक्ति की चर्चा की गई है, जो सर्वथा श्वेताम्बरसम्मत सिद्धान्त है । दिगम्बर - सम्प्रदाय की किसी भी शाखा, उपशाखा द्वारा ये स्वीकृत नहीं हैं । इतना ही नहीं, श्वेताम्बरों के साथ दिगम्बरों का जिन विशेष पहलुओं को लेकर मत दूध है, उनमें ये मुख्य हैं । यह सब होते हुए भी गुणरत्न यापनीयों को स्पष्टतया दिगम्बरों के भेदों में गिनाते हैं । ऐसा लगता है, गुणरत्न के चिन्तन के आधार सम्भवतः यापनीयों का बाह्य स्वरूप अधिक रहा है । सिद्धान्तों की ओर सम्भवतः उन्होंने उतना अधिक ध्यान न दिया हो और नाग्न्य के कारण उन्हें सहज ही दिगम्बरों में ले लिया हो । पर, जैसा कि पहले संकेत किया ही गया है, दिगम्बरों ने भी नग्नता के बावजूद उन्हें अपना अंग नहीं माना । सम्प्रदायों का मापदण्ड कुछ इसी प्रकार का रहा है, अनेक बातों व सिद्धान्तों में मिलते हुए भी जो सम्पूर्णतः मेल नहीं खाता, उसे प्रांशिक समर्थन भी नहीं दिया जाता । क्या इस सन्दर्भ में अनेकान्तवादी दर्शन के व्यावहारिक प्रयोग में कुछ ससीमता के दर्शन नहीं होते — विद्वानों के लिए यह एक अनुशीलनीय पहलू है । थापनीय के नामान्तर प्राकृत भाषा, वाङ्मय एवं जैन जगत् के लब्धिप्रतिष्ठ विद्वान् डा० ए० एन० उपाध्ये १. ( क ) षड्दर्शनसमुच्चय सटीक, पृ० १६०-६१ (ख) मलधारी राजशेखर का भी इसी आशय का एक श्लोक है : दिगम्बराणां चत्वारो, भेदा नाग्न्यव्रतस्पृशः । काष्ठासंघो मूलसंघ, संघौ माथुरगोप्यकौ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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