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३३४] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :२ एवं प्रशस्तता परिव्याप्त थी। उदार के बाद दूसरा विशेषण घोर है। जिन तपों के आचरण में बहुत कठिनाई होली है, उनका सहजतया आचरण करने के कारण आर्य सुधर्मा घोर कहे गये हैं। घोर का अर्थ यहाँ भयानक या डराधना नहीं है। क्योंकि आय सुधर्मा तो अत्यन्त उदार, सरल और कोमल वृत्तियों के धनी थे। उनमें कठोरता या घोरता कैसे हो सकती थी? स्वकल्प-आत्मबली जिन व्रतों और तपश्चर्याओं को बड़ी कठिनाई से साध सकते थे, आय' सुधर्मा अत्यन्त सहज भाव से उनका परिपालन करते जाने के कारण इस विशेषण से विशेषित किये गये हैं। इसी प्रकार घोर तपस्थी शब्द भी उनके लिए प्रयुक्त हुआ है। घोर ब्रह्मचर्यवासी ___ आय सुधर्मा की ब्रह्मचर्य-साधना परम उच्चकोटि की थी; अतः उन्हें घोर ब्रह्मचय:वासी-उत्कट ब्रह्मचारी कहा है। अपने देह के प्रति वे सर्वथा अनासक्त थे। उनके लिए अपना देह उत्क्षिप्त या परित्यक्त जैसा था। उनको तेजोलेश्या जैसी विपुल - विशाल और दुधर सिद्धियां प्राप्त थीं, पर, उनका प्रयोग करना तो दूर, वे उन्हें सम्यक्तया संगोपित किये रहते थे। यदि ऐसा न होता, तो अतितेजस्तप्त, प्रखर सूर्य' की तरह उनकी ओर देखना कठिन हो जाता। वे मति, श्रुत, अवधि और मनःपय व रूप ज्ञान-चतुष्टय तथा चतुर्दश पूर्षों के धारक थे। आवश्यक नियुक्ति में आर्य सुधर्मा को सभी लब्धियों से युक्त कहा गया है। उनका देहिक गठन वज-ऋषभ-नाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थान मय था।
१. मासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपन्ना। वज्जरिंसहसंघयणा समचउरसा य संठाणे ॥
-आवश्यक-नियुक्ति, गाथा ६५६ २. संहननम्-अस्थिसंचयविशेषः, वजादीनां लक्षणमिदम्-रिसहो य होइ पट्टो वज्जं
पुण कोलियं वियाणाहि । उभऔ मक्कडबंधो नारायं तं वियाणा हि ॥ ति तत्र वजं च तत् कीलिका-कीलित-काष्ठसंपुटोपमं सामर्थ्ययुक्तत्वात्, ऋषभश्च लौहादिमयपट्टबद्ध काष्ठसंपुटोपम: सामर्थ्यान्वितत्वात्, वर्षमः, स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठ संपुटोपमं सामर्थ्योपैतत्वात्, वर्षभनाराचम्, तत् संहननम्-अस्थिसंचयविशेषोऽनुत्तमसामर्थ्ययोगात्।
-भगवती, शतक १, प्रश्नोत्थान, पृ. ३४ ३. नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यम् । तत्व च तत् चतुरस्र च प्रधानं
समचतुरस्रम् । अथवा समाः शरोरलक्षणोक्तप्रमाण विसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्त्रयो यस्य तत् समचतुरस्त्रम्, अस्त्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा इति । अन्ये त्वाःसमा अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽपि अत्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम् । अत्रयश्च पर्यकासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम्, आसनस्य ललाटोपरि भागस्य चान्तरम्, दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम्, वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरम् ।
-वही, पृ० ३४
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