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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ३३५
जैसा कि यथाप्रसंग इगित किया गया है, देहिक दृढ़ता का भी उग्र तप साधने एवं घोग परिषह सहने में अपना महत्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि वहां मुख्य आधार तो आत्म-बल ही होता है, पर, अत्यधिक प्रतिकूल भौतिक स्थितियों-शीत, ताप, वृष्टि आदि प्रबल प्रहार साघात भादि सहने में देह-संहनन भी सहायक होता है। संस्कारी महान् पुरुषों को पूर्वाजित पुण्यात्मक कर्मों के फलस्वरूप सहज ही दैहिक शक्तिमत्ता, सुगठितता तथा परिपूर्णता प्राप्त होती है। आर्य सुधर्मा में स्वभावतः ये सब विशेषताए विद्यमान थीं। केवली और पट्टधर
केवली पट्टासीन नहीं होते; अतः सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है, जब आयं सुधर्मा को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया, तो उनकी क्या स्थिति रही ? जब केवली पट्टधर, संघ-नायक या आचार्य का पद स्वीकार नहीं करते, तो केवली होने पर फिर वे पट्टासीन कैसे रहते ?
केवली द्वारा संघाधिपति या पट्टधर का पद स्वीकार किया जाना और संघाधिपति रहते हुए उन्हें केवल-ज्ञान प्राप्त होना; ये दो भिन्न स्थितियां हैं। पहली स्थिति में संघनायक या आचार्य होने में जो बाधा है, वह दूसरी स्थिति में नहीं होती। केवली के पट्ट पर केवली आसीन हों, तो द्वादशांग रूप ज्ञान का परम्परा प्राप्त शृंखलागत स्रोत यथावत् नहीं रह पाता। क्योंकि पट्टासीन नव केवली द्वारा उद्घोष्यमान देशना स्वयं ज्ञात और दृष्ट साक्षात्-प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उसी भाषा में होती है। आय' सुधर्मा का बारह वर्ष का जो असर्वज्ञत्व-काल था, ऐसा मानना बहुत संगत प्रतीत होता है कि वे तब तक अपने अन्तेवासी आर्य' जम्बू को सम्पूर्णरूपेण द्वादशांगी का ज्ञान दे चुके हों। धर्म की सामान्य देशना उजागर करने में कभी किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न होता नहीं। सर्वज्ञता या कैवल्य अधिगत करने के पश्चात् भगवान् सुधर्मा जनपद-विहार करते हुए अपने वचनामृत से जन-जन को धर्म का दिव्य सन्देश देते रहे, जिस और आगम-वाङमय में स्थानस्थान पर संकेत प्राप्त होते हैं । निर्वाण
निर्वाण से पूर्व आय सुधर्मा एक मास तक पादोपगमन आमरण अनशन में रहे। नियुक्तिकार ने सभो गणधरों के लिए इसी प्रकार के अन्तिम तप का उल्लेख किया है।
जहां यावज्जीवन चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है, वह चतुर्विध
१. मासं पाओवगया सव्वेऽपि य सव्वलद्धिसंपन्ना। वज्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य संढाणे॥
-आवश्यक-निर्यक्ति, गाथा ६५६
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