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________________ मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ आहार'-त्यागजनित (आमरण) अनशन है। उसका एक भेद पाओवगमण-पादोपगमन है। नियुक्तिकार द्वारा प्रयुक्त पाओवगय शब्द इसी से सम्बद्ध है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में भरत चक्रवर्ती के धर्णन-प्रसंग में प्रयुक्त इसी शब्द का विवेचन करते हुए वृत्तिकार शान्ति चन्द्र ने लिखा है : “पाद का अर्थ वृक्ष का जमीन में गड़ा हुआ जड़ का भाग है। उसकी तरह जिस ( गृहीत-अनशन ) व्यक्ति की अप्रकम्प स्थिति होती है, उसे पादोपगत कहा जाता पादोपगमन के स्थान पर कुछ ग्रन्थों में पादपोगमन मान कर व्याख्या की गयी है, जिनका सारांश है : "आमरण-अनशन-प्राप्त साधक, जिसमें पादप-वृक्ष की तरह परिस्पन्दनकम्पन आदि से सपंथा रहित हो जाता है, वह पादपोपगमन अनशन कहा जाता है।" इस अनशन में साधक की सर्वथा निश्चल स्थिति होती है। अनशन स्वीकार करते समय वह पीठ के बल सीधा लेट जाता है। जरा भी हिलता-डुलता नहीं। वह जीवन भर उसी अवस्था में रहने को दृढ़प्रतिश होता है। उसके अचंचल या कम्पन रहित अवस्थान का बोध कराने के लिए पाद या पादप की उपमा दी गई है। उसी के आधार पर उसका नामकरण हुआ है। पादप स्थिरता या अप्रकम्पावस्था का प्रतीक है। उसकी शाखाओं, टहनियों आदि में जो हलचल दिखाई देती है, वह उसकी अपनी नहीं है। वह पचन आदि के कारण है। उसी प्रकार पादपोपगत-अनशन-प्राप्त व्यक्ति अपने किसी भी अंग-उपांग को अपनो ओर से जरा भी हिलने डुलने नहीं देता। किसी अन्य व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण सा हो जाना अन्य बात है। १ चउविहे आहारे पण्णते, तं जहा-असणे, पाणे, खाइमे, साइमे। -स्थानांग सूत्र, स्थान ४ अशनं मण्डकौवनादि, पानं चैव द्राक्षापानादि खादिमं फलादि, स्वादिमं गुडादि-एष आहारविधिश्चतुर्विधो भवति।। -अभिधानराजेन्द्र, भाग २, पृ० ५२४ २. पादो वृक्षस्य भूगतो मूलभागः, तस्येव अप्रकम्पतया उपगतम्-अवस्थानं यस्य स तथा । -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार ३, सूत्र ७० वृत्ति ३. (क) पादपो वृक्षः, उपशब्दश्चोपमेयो पि सादृश्ये पि दृश्यते । ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनम् पादपवन्निश्चले। -धर्मसंग्रह सटीक, अधिकार ३ (ख) सर्वथा परिस्पन्दवर्जिते चतुर्विधाहारत्यागनिष्पन्ने नशनभेदे । -पंचाशक टीका, विवरण १६ (ग) पावपस्येवोपगमनमस्पन्वतया वस्थानं पावपोपगमनम् । -मगवती सूत्र, शतक २५, उद्देशक ७ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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