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________________ भाषा और साहित्य] आर्ष (अर्धमागधी) प्राकृत और मागम वाङमय [३३७ जम्बूद्वीप-प्राप्ति के वृत्तिकाश शान्तिचन्द्र ने पादप की उपमा के बजाय जो पाद की भूमिगत जड़ की उपमा दी है, वह स्यात् अधिक संगत है। अचंचल, स्थिर तथा निश्चल दशा व्यक्त करने में जड़ अधिक उपयुक्त है। भूमि में गड़े रहने से दूसरे ऐसे निमित्त साधारणतया नहीं मिलते, जो उसे हिलाए डुलाए, जबकि वृक्ष के हिलते-जुलते रहने के बराबर प्रसंग बनते रहते हैं। पादोपगत आमरण अनशन प्राप्त साधक के हिलने डुलने के प्रसंग प्रायः नहीं बनते, बहुत कम बनते हैं। दूसरे लोग भी प्रायः ध्यान रखते हैं तथा यथाप्रसंग उसके साथ ऐसा कुछ नहीं करते, जिससे उसकी अविचल दशा बाधित हो। आर्य सुधर्मा ने एक दीर्घ, पवित्र और सफल जीवन जीते हुए शप्त वर्षीय आयु में जीवन का चरम साध्य, जिसे साधने के लिए वे सर्वस्व त्याग कर साधना के पावन पथ पर चल पड़े थे, प्राप्त किया। उनका निर्वाण मगध की राजधानी राजगृह में हुआ।' उपसंहार आर्य सुधर्मा का जन्म ई. पू. ६०७ में हुआ। इन्द्रभूति गौतम का भी जन्म इसी वर्ष माना जाता है। सुधर्मा ५० वर्ष की आयु तक गृहस्थ-पर्याय में रहे। ३० वर्ष तक साधुपर्याय में रहे । भगवान् महावीर के निर्वाण और गौतम के केवली होने पर गौतम के जीवनकाल में वे १२ वर्ष असज्ञ रूप में संघ के अधिनायक रहे। जिस दिन गौतम का निर्वाण हुमा, सुधर्मा को केवल-ज्ञान प्राप्त हुमा । उनका आठ वर्ष का केवलि काल है; अतः इस अवधि में केवली के रूप में संघ-नायक रहे। . इस प्रकार ५० वर्ष गृहस्थ जीवन +३० वर्ष साधु-जीवन +१२ वर्ष अस रूप में संघप्रधान तथा +८ वर्ष सर्वज्ञ रूप में संघ-प्रधान = कुल १०० वर्ष का षयोमान होता है। दिगम्बर-परम्परा इससे कुछ भिन्न है। वहां इनका केवलि-काल बारह वर्ष का माना जाता है। जम्बूसामिचरिउ के रचयिता घोर कधि (११ वीं शती) ने सुधर्मा के १८ वर्ष तक केवली के रूप में रहने का उल्लेख किया है, जो दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के विरुद्ध है। हो सकता है, वीर कधि के सामने कोई ऐसी पट्टावती यही हो, पर वर्तमान में इस प्रकार का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं है । आर्य खम्बू भायं जम्बू इस युग के अन्तिम केवली थे। वे भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्य मार्य १. परिनिव्वुया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ। इदमूई सुहम्मो अ रायगिहे निव्वुए वीरे। -आवश्यक-निर्यक्ति. गाथा ६५८ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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