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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
सुधर्मा के अन्तेवासी थे । अर्द्धमागधी आगम वाङमय के अब तक चले जाने वाले स्रोत का बहुत कुछ श्रेय आयं जम्बू को है । भगवान् महावीर ने त्रिपदी के रूप में धर्म देशना दी । गणधरों द्वारा सूत्रात्मकतया उसका ग्रथन हुआ । भगवान् महावीर ने प्रासंगिक रूप में अपने निकटतम अन्तेवासी गणधर गौतम आदि द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तर रूप में भी तत्व व्याख्यात किया । सामष्टिकरूपेण यही सब मिला कर द्वादशांगों का कलेवर है ।
परम जिज्ञासु
भगवान् महावीर के अनन्तर आगम वाङमय के उत्तरवर्ती माध्यम गणधर सुधर्मा थे । उनके अनन्य अन्नेवासी आर्य जम्बू परम जिज्ञासु एवं मुमुक्षु थे । उनके मानस में जिज्ञासाए उभरतीं । वे अपने श्रद्धास्पद एवं पूजनीय गुरु आर्य सुधर्मा के समक्ष उन्हें उपस्थित करते । सुधर्मा उनका समाधान देते । अपनी ओर से नहीं, जैसा उन्हें भगवान् महावीर की वाणी के रूप में प्राप्त था, प्रायः वैसा कथन करते । इसी प्रकार कभी भगवान् के प्रथम गणधर आय गौतम जिज्ञासु भाव लिए अपने आराध्य से पूछा करते थे । अन्य गणधर या जिशासु उपा सक जन भी पूछते । भगवान् उन सबका समाधान करते । कुछ अपृष्ट, पर अपेक्षित तथ्य भी भगवान् प्रतिपादित करते । इन्हीं सब का आकलन श्रुत की अप्रतिम निधि के रूप में जुड़ता गया। आयं सुधर्मा अपने अन्तेवासी जम्बू को जब उत्तर देते, तो यह आप्त स्रोत मुख्यतः उनका आधार रहता । जैन आगम वाङमय के अब तक जीवित रहने का यह एक पुष्ट आधार है | आर्यं जम्बू के प्रश्न, आय सुधर्मा द्वारा विवेचन - श्रुत सुरसरी का इस प्रकार उत्तरोत्तर संप्रसार, यह जो सधा, सचमुच जैन इतिहास की एक अविस्मरणीय घटना है, जो आती संस्कृति के विकास तथा विस्तार का मूल है ।
प्रश्नोत्तर - क्रम
प्रश्नोत्तर-क्रम का मनोज्ञ रूप प्रस्तुत करने के लिये नाया धम्मकहाओ के प्रारम्भ का कुछ अंश मननीय है : "उस समय भाय सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य काश्यपगोत्रोत्पन्न आर्य जम्बू अपने गुरु के न बहुत दूर न बहुत समीप, ऊर्ध्वं जानु, प्रवत मस्तक, धर्म-ध्यान व शुक्ल ध्यान रूपी कोष्ठ में अवस्थित, संयम और तपस्या से अपने को प्रतिभावित करते हुए उपस्थित थे । उनको श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ । वे उठे। जहां आयं सुधर्मा थे, आये । उन्हें तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा कर वन्दन और नमन किया। आर्य सुधर्मा केन अति असन्न - समीप, न अति दूर, शुश्रूषा से सम्मुख होते हुए, अंजलिपुट किये हुएदोनों जुड़े हुए हाथों पर ललाट रखे हुए, विनय-पूर्वक अभ्यर्थना करते हुए बोले- भगवान् ! श्रमण भगवान् महावीर.... पांचवें (व्याख्याप्रज्ञप्ति भगवती) अंग का यह अर्थं व्याख्यात किया, as rङ्ग ज्ञातृधर्मकथा (णायधम्मकहाओ ) का क्या अर्थ है ? कृपया बतलाइए ।
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