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भारतीय आर्य भाषाओं का काल-क्रम
आर्यों के भारत-आगमन के पश्चात् यहां आर्य-भाषाओं का जो विकास हुआ, उसे काल की अपेक्षा से भाषा-वैज्ञानिक तीन भागों में विभक्त करते हैं :
१. प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा-काल ( ई० पू० १५०० से ई० पू० ५०० तक) २. मध्यकालीय भारतीय आर्य-भाषा-काल ( ५०० ई० से १००० ई० तक ) ३. आधुनिक भारतीय आर्य-भाषा-काल ( १००० ई० से बीसवीं शताब्दी तक )
यह काल-क्रम सौ-दो सौ वर्षों के पूर्वापर परिवर्तन के साथ प्रायः अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकृत है।
भाषा-वैज्ञानिक प्राचीन भारतीय आय-भाषा-काल में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत की गणना करते हैं। वैदिक संस्कृत के लिए 'छन्दस्' शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। पाणिनि ने आज की लौकिक संस्कृत के लिए 'भाषा' शब्द का व्यवहार किया है। साधारणतया अब संस्कृत शब्द वैदिक तथा लौकिक; दोनों के लिए प्रयोग में आता है। कतिपय भाषाविज्ञान-वेत्ताओं का अभिमत है कि ई० पू० २००० वर्ष इस भाषा का समय है । प्रो० मैक्स मूलर का मत इससे भिन्न है। वे इस काल को अधिक आगे ले आते हैं। सब वेदों में इस भाषा का प्रयोग हुआ है। यद्यपि उसका सर्वथा एक रूप तो नहीं है, पर, मौलिक भेद भी नहीं है । शाब्दिक कलेवर तथा प्रयोग आदि में यत्र-तत्र कुछ भिन्नता है।
काल-प्रवाह के साथ वैदिक भाषा शनैः - शनैः परिमार्जित होती गयी। इस परिमार्जन या परिष्कार-काल के अन्तर्वर्ती भाषा के समस्त रूप-रूपान्तर तो नहीं मिलते, पर, उससे परवर्ती काल में छन्दस् का क्रमशः ब्राह्मणों, आरण्यकों, , उपनिषदों और यास्क के निरुक्त की भाषा के रूप में जो परिष्कार या विकास हुआ, वह प्राप्त है। इनकी भाषा एक प्रकार से वैदिक भाषा की परम्परा में आती है, पर, वास्तव में वह वैदिक और लौकिक संस्कृत का मध्यवर्ती रूप है।
वैदिक भाषा का संस्कार या सम्मान कर उसे व्याकरण द्वारा नियन्त्रित और व्यवस्थित रूप देने वाले महान् पयाकरण पाणिनि हैं। तदनन्तर भारतवर्ष में इस परम्परा के अन्तर्गत विधामा में साहित्य रचा गया है, वह लौकिक संसत की श्रेणी में भाता है।
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