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________________ भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्ध मागधी ) प्राकृत और आगम वाङमय [३४१ वे पूछते हैं कि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीय का ज्ञान, दर्शन और शोल कैसा था ? हे भिक्षो ! आप इसे यथावत् जानते हैं । जैसा आपने सुना है, तदनुसार बतलाए। . उक्त प्रसंग से यह स्पष्ट है कि आर्य जम्बू आयं सुधर्मा के मुख्य शिष्य थे। इसलिए जिज्ञासु व्यक्ति कभी-कभी सीधे प्रश्न पूछ लेते थे। उपर्युक्त गाथाओं में इसी प्रकार का उल्लेख है । जिज्ञासु श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों तथा उत्तर धर्मावलम्बी जनों ने उनसे जो जानना चाहा, वह कोई ऐसा विषय नहीं जान पड़ता, जिसे आयं जम्बू न जानते हों। पर जम्बू सोधा अपनी ओर से उत्तर नहीं देते। वे श्रुत-स्रोत को परम्परा का निर्वाह करते हैं। फलतः अपने आराध्य गुरुवय सुधर्मा से पूछते हैं । इससे उनका यह अभिप्राय स्पष्ट अनुमेय है कि तोथकरानुप्राणित तथा गणवरानुप्रथित, शृंखलानुगत श्रुत-स्रोत अविच्छिन्न या अव्यवहित रूप से जन-जन तक पहुंचे। सूत्रकृतांग सूत्र में आर्य सुधर्मा द्वारा स्वयं भगवान् महावीर से पूछे जाने का उल्लेख है। यह प्रसंग इस प्रकार है : पुच्छिस्स हं केवलियं महेसिं, कहं मितावा पारगा पुरत्या । अजाणो मे मुणि बूहि जाणं, कहं नु बाला नरयं उविति ॥ एव मए पुढे महाणुभावे, इणमोबणी कासवे आसुपन्ने । पवेदइस्सं दुहमदुग्णं, आदोणियं दुक्कडियं पुरत्था ॥1 -आर्य सुधर्मा कहते हैं, मैंने प्राप्त-कवल्य महामुनि भगवान महावीर से पूछा कि नरक में प्राणी किस प्रकार अभितप्त होते हैं ? बाल-ज्ञान-गहित प्राणी किन-किन कारणों से नएक उपात करते हैं । प्रभो ! मैं नहीं जानता, आप जानते हैं, बतलाए । मेरे द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर महान् प्रभावशील, काश्यपगोत्रोत्पन्न, आशुप्राज्ञ भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा-जो दुःपूर्ण है, जो अर्थ-दुर्ग-छद्मस्थों या असर्वज्ञों के लिए जिसका अर्थ-यथातथ्य दुर्गम है, जो दोन-पापी-कष्टपूर्ण जीवों से परिव्याप्त है, जो दुष्कृतिक है-जहां दुष्कर्मों का फल भोग होता है, उस (नरक) के स्वरूप का आख्यान करूंगा। इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि आर्य सुधमा भो जम्मू से जो कहना चाहते हैं, वह पारस्परिक स्रोतानुगत हो, इस ओर वे पूर्णतया जागरूा प्रतीत होते हैं। भगवान् से मैंने पूछा, १. सूत्रकृतांग सूत्र, १.५.१.१,२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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