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________________ ३४२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड :२ वे बोले-ये शब्द आर्य सुधर्मा का विवक्षित विषय पर भगवद्-वाणी को यथावत् रूप में प्रस्तुत करने का मानस सूचित करते हैं । मायं सुधर्मा जो कहते हैं, "अजाणओ में मुणि बूहि जाणं"-मैं अज्ञाता हूं, माप ज्ञाता है, बतलाए-वह उन (आय सुधर्मा के) असीम धिनय, सरलता, श्रद्धा और भाष-प्रवणता का द्योतक है। अत्यन्त उन्नत ज्ञान के धनी, महनीय गणधर-पद के अधिकारी आर्य सुधर्मा नरक के दुःखों और कारणों के सम्बन्ध में नहीं जानते थे, यह कैसे माना जा सकता है ? यह सर्वथा उपपन्न है कि वे जानते-बूझते भी तीर्थकर के मुख से साक्षात् ज्ञात, दृष्ट, अनुभूत वाणी सुनना चाहते रहे हों और उन्हीं के यथावत् शब्दों में कहना भी। जन दर्शन में प्रमाण के दो भेद माने गये हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो ज्ञान इन्दियसापेक्ष और मन-सापेक्ष न होकर एकमात्र आत्म-सापेक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष है। यह सम्पूर्ण रूप में केवल केवली या सर्वज्ञ के होता है। क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म परिपूर्णरूप में क्षीण हो चुकते हैं। मनःपर्यवज्ञानी और अवधिज्ञानो के वह (शानावरणीय) अंशतः क्षीण होता है अर्थात् उनका ज्ञान भो सोधा आम-सापेक्ष होता है, परन्तु (आंशिकतया ज्ञानापरपीय कमै के क्षय के कारण) वह सोभित होता है। इसके अतिरिक्त मन और इन्द्रिय के माध्यम से जो जाना जाता है, तत्वतः वह प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष है । व्यवहार की भाषा में उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। इसीलिए जैन नेयायिकों ने उसे सख्यावहारिक प्रत्यक्ष को संज्ञा दी है। तब तक आर्य सुवर्मा के ज्ञातावरणीय कर्म का सर्वथा विलय या सम्पूर्णतया क्षय नहीं हो पाया था। वे सर्वज्ञ नहीं हुए थे; अत: साता की अपेक्षा से उनका ज्ञान अपरिपूर्ण था। स्यात् इस अपेक्षा से उन्होंने नारकीय दुःखों के न जानने की चर्चा की हो । जैसा भी हो, यहां मुख्य अभिप्राय ज्ञान को निष्यवधान-धारा यथावत् प्रवहणशील बनाये रखने का ज्ञात होता है। आचारोग, समवायांग, स्थानांग, व्याख्या-प्राप्ति आदि अंग-सूत्रों में आयं सुधर्मा द्वारा विवक्षित विषय का विवेचन प्रायः निम्नांकित शब्दावली की पृभूमि के साथ किया जाता रहा है : सुर्य मे आउसं। तेण भगवया समस्वयं । अर्थात आयुषमन् । जेसा मैंने सुना है, भगवान् महावीर ने (प्रसंगोपात विषय का) इस प्रकार आख्यान -प्रतिपादन किया है। इस आशय के भाषा-प्रयोगों से स्पष्ट है कि आगम-भ्रत की परम्परानुस्यूति बनाये रखने को ओर विशेष ध्यान रखा जाता रहा है । जम्बू के सम्बन्ध में उल्लेख उपयुक्त प्रश्ननोतर-सम्बन्धी प्रसंगों के अतिरिक्त परिचयात्मक दृष्टि से कल्पसूत्र में Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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