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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड :२ यथेष्ट, विस्तृत विश्लेषण को यथावत् व्यवस्था बुद्धि में बनाये रखने में अवश्य जटिलता होती है। अतएव आयं रक्षित को ऐसा लगा हो कि इससे अध्ययन तथा व्याख्या स्वस्थ नहीं रह सकेगी; क्योंकि यह शैली प्रखर प्रतिभा, सतत जागरूकता तथा अनवरत अभ्यास-परायणतागम्य है। इसलिये उन्होंने अनुयोग-विभाजन किया, जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न सूत्रों का तद्गत विषय की प्रधानता की दृष्टि से किसो एक अनुयोग में परिसीमन हो जाता है। जैसे, चरण-करणानुयोग में जिन सूत्र-ग्रन्थों का समावेश है, उनमें मुख्यतः चरण-आचार या चारित्र्य का विश्लेषण है। इसी प्रकार धर्मकथानुयोग में उन ग्रन्थों का ग्रहण है, जैसा कि इस नाम से ही स्पष्ट है, जहां मुख्यतः धम-निरूपण में कथाओं का माध्यम परिगृहीत है। गणितानुयोग गणित से सम्बद्ध है औरा. द्रव्यानुयोग पदार्थ-विज्ञान से । यह नूतन विभाग-क्रम बड़ा लाभप्रद सिद्ध हुआ । मेधा और प्रज्ञा को उत्तरोत्तर हीयमानता के होते हुए भी इससे अध्येताओं की श्रुतानुशीलन में सम्यक् गति बनी रही। उनका शास्त्राभ्यास का मार्ग इससे सुगम बना । जिस अनुयोगगत विषय का उन्हें अध्ययन करना हो, उसके लिये उन्हें एक सुनिश्चित सरणि तथा परिशीलनीय वाङमय का स्पष्ट दर्शन प्राप्त हुआ। द्वितीय आगम-वाचना माधुरी वाचना __ आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में सम्पन्न हुई थी। आवश्यक चूर्णि के अनुसार महावीर-निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई। उसमें ग्यारह अंग सकलित हुए । गुरु शिष्य-क्रम से वे शताब्दियों तक चालू रहे, परा, फिर वीर-निर्वाण के लगभग पौने सात शताब्दियों के पश्चात् ऐसो विषम स्थिति उत्पन्न हुई कि आगमों के पुनः संकलन का उद्योग करना पड़ा। बारह वर्षों का भीषण दुर्भिक्ष कहा जाता है, तब बारह वर्षों का भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। लोक-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। लोगों को खाने के लाले पड़ गये । श्रमणों पर भो उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । खान-पान, रहन-सहन आदि को अनुकूलता मिट गयी। श्रामण्य में स्थिर रह पाना अत्यधिक कठिन हो गया। अनेक श्रमण काल-कवलित हो गये । नन्दी चूणि में इस सम्बन्ध में उल्लेख है-ग्रहण, गुणन, अनुप्रेक्षा मादि के अभाव से श्रुत नष्ट हो गया। कुछ का कहना है, श्रुत नष्ट नहीं हुआ, अधिकांश श्रुत-वेत्ता नष्ट हो गये। हार्द लगभग समान हो है। किसी भी प्रकार से हो, श्रुत-शृंखला व्याहत हो गयो । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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