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भाषा और साहित्य ] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए' [ १५७ और अभिवृद्धिशील होते जाने के कारण संस्कृत उपर्युक्त रूप में सरलता और लोकजनीनता ग्रहण करने पर भी प्राकृतों का स्थान नहीं ले सकी। अतएव तदुपरान्त संस्कृत में जो साहित्य प्रणीत हुआ, वह विशेषतः विद्वद्भोग्य रहा, उसकी लोक-भोग्यता कम होती गयी। लम्बे-लम्बे समास, दुरूह सन्धि-प्रयोग, शब्दालंकार या शब्दाडम्बर, कृत्रिमतापूर्ण पद-रचना और वाक्य-रचना से साहित्य जटिल और क्लिष्ट होता गया। सामान्य पाठकों की पहुंच उस तक कैसे होती?
उपयुक्त विविध परिस्थितियों के परिपाश्व में प्राकृत भाषा के विभिन्न पहलुओं पर अग्रिम अध्यायों में चिन्तन करना मुख्य अभिप्रेत है।
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