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१२ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ साम-गान की दृष्टि से हुआ है; अतः मन्त्रों की पुनरावृति बहुत है। कुल १,८१० मन्त्र हैं । यदि पुनरावृत्त मन्त्रों को निकाल दिया जाए, तो आधे से थोड़े से अधिक ६८५ मन्त्र बच जाते हैं, पूर्वाद्ध में ५८५ और उत्तरार्द्ध में ४००।
सामवेद दो भागों में विभक्त है। उसका पूर्वाद्ध आचिंक तथा उत्तराद्ध उत्तराधिक कहा जाता है। आर्चिक शब्द ऋक् या ऋचा से बना है, जिसका अर्थ ऋचाओं का समूह है। उतराचिंक की अपनी एक विशेषता है। उसमें मन्त्रों को बड़े सुन्दर क्रम से रखा गया है। जिन मन्त्रों का किसी एक यज्ञ में उपयोग होता है. उन्हें एक स्थान पर रखा गया है। इससे यज्ञ विशेष में प्रयोज्य मन्त्रों को पृथक-पृथक ढूंढ़ना नहीं पड़ता। पृथक्-पृथक यज्ञों के लिए अपेक्षित मन्त्र पृथक-पृषक स्थानों पर एकत्र प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार जिन मन्त्रों का जिस देवता से सम्बन्ध है, वे एकत्र संग्रहीत हैं । जो मन्त्र किसी एक ही छन्द में रचित हैं, उनको एकत्र रखा गया है। इससे मन्त्रों के प्रयोग में विशेष सुविधा होती है।
गान-सम्बन्धी महत्वपूर्ण वाङमय इस संहिता के अन्तर्गत समाविष्ट है, जिसमें मन्त्रों के गान का प्रकार, गान के समय इस्व मात्राओं का दीघ अथवा लुप्त के रूप में परिवर्तन, लयात्मकता की दृष्टि से शब्दों की पुनरावृत्ति, स्वर, विश्राम, मूच्छंना आदि संगीतोपयोगी क्रमों के सम्बन्धों में नियम दिये गये हैं। भारतीय संगीत का जो बहुमुखी विकास हुआ, सामवेद उसका मुख्य आधार रहा, विद्वानों की ऐसी मान्यता है।
परम्परया ऐसा विश्वास किया जाता है कि कभी सामवेद की हजार शाखाएं विद्यमान थीं। आज उसकी केवल दो शाखाए सम्पूर्ण रूप में तथा एक आंशिक रूप में प्राप्त है। प्रथम 'राणायनीय' है, जो पूरी प्राप्त है। द्वितीय शाखा का नाम 'कौथुम' है, जिसका केवल सातवां अध्याय प्राप्त है। अवशिष्ट अंश नष्ट हो गया है। तृतीय शाखा 'जेमिनीय' के नाम से विश्रुत है, जो सम्पूर्णतया प्राप्त है। अथर्व वेद
अथर्व वेद में प्रायः ऐसे मन्त्रों का संग्रह है, जिनका सम्बन्ध शत्रु-नाशन, मारण, उच्चाटन आदि से है। इसमें विपत्ति, पाप, अशुभ एवं दुर्भाग्य से अपने बचाव के लिए रचित अनेक प्रार्थनाए भी हैं। अपने लिए मंगल तथा दूसरों-अपने शत्रुषों के लिए अमंगलजनक १. पं ब्रह्मा वरुणेन्द्रवमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै
वंदैः सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो, यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः ॥
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