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________________ ११४ ] आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : २ है । व्यासदेव ने आदि पर्व में स्वयं इसे इतिहास के नाम से अभिहित किया है : जयो नामेतिहासोऽ यं श्रोतव्यो विजिगीषुणा । इतिहास के रूप में स्वीकृत रहा होगा । उहिष्ट कर उनका वचन है : कृतं मयेदं उनसे कहा : त्वया च काव्यमित्युक्तं तस्मात् काव्यं भविष्यति । ऐसा लगता है, प्राक्तन समय में महाभारत ही व्यासदेव स्वयं इसे काव्य भी कहते हैं । ब्रह्मा को भगवन् ! काव्यं परमपूजितम् । ब्रह्मा ने उत्तर में आलंकारिक परम्परा के अनेकानेक महाकाव्यों के जन्मदाता इस महाभारत को सुप्रसिद्ध 'काव्यशास्त्री आचार्य आनन्दवर्धन ने महाकाव्य के रूप में स्वीकार किया । उन्होंने महाभारत के अन्तःस्पर्शी एवं भाव-विह्वल अंशों को स्थान-स्थान पर उद्धत कर उनकी व्यंजनाओं का विश्लेषण किया और यह स्थापना की कि यद्यपि अन्यान्य रस भी वहां उपस्थित हैं, पर, शान्त रस ही महाभारत का प्रधान रस है । विश्व के इतिहास - साहित्य में गुण और विस्तार; दोनों ही अपेक्षाओं से महाभारत सबसे बड़ा महाकाव्य है | विद्वज्जन व्यास की होमय और दान्ते से तुलना करते हैं, परन्तु होमर के इलियड तथा आडिसी; दोनों को मिलाकर भी देखा जाये, तो महाभारत उनसे कहीं आठ गुना विस्तृत सिद्ध होगा । इसमें अठारह पर्व हैं । शान्तिपर्व सबसे बड़ा है । एक ही पर्व में १४ सहस्र श्लोक हैं। हरिवंश को महाभारत का परिशिष्ट भाग या १६ व पर्व माना जा सकता है । महाभारत में कौरवों तथा पाण्डवों और हरिवंश में कृष्ण तथा यादवों का अनेक दृष्टियों से विस्तृत वर्णन है । हरिवंश को मिलाने पर महाभारत में एक लाख श्लोक होते हैं । महाभारत निःसन्देह बहुत महत्व और भारवत्ता - अतिविशालता लिये हुए है । इसीलिए उसके नाम के विश्लेषण में कहा गया है : महत्वाद् भारवत्वाच्च महाभारतमुच्यते । 2 समग्र महाभारत दार्शनिक विवेचन, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक विषयों से सम्बद्ध निगूढ़ तत्वों से ओतप्रोत है । वर्णाश्रम धर्म सम्बन्धी विधि-विधान, कर्तव्य तथा धर्म और मोक्ष तस्व-सम्बन्धी मार्मिक विश्लेषणों से भरा है । शब्दों के प्राचीन रूपों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है । भाषा प्रांजल तथा प्रवाहपूर्ण है । यद्यपि रामायण जैसा यहां efore तो नहीं है, पर शब्दों तथा लोकोक्तियों के बड़े सुन्दर प्रयोग स्थान-स्थान पर प्राप्त होते हैं, जो रामायण की छाप के परिचायक हैं। व्यासदेव की शैली के मुख्य गुण हैंओजस्विता और स्पष्टता । उनके पात्रों के चरित्र में ओजस् और स्पष्टता की सहज व्यासि १. महाभारत, आदि पर्व, ६२, २२ २. महाभारत, आदि पर्व, १.३०० Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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