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________________ ३७० आगम और त्रिपिटक । एक अनुशीलन प्रकृति के विख्यात वैयाकरण डा० आर० पिशेल (Dr. Pischel) ने इसे जो जैन शौरसेनी कहा है, उसके पीछे भी उसी प्रकार का अभिप्राय प्रतीत होता है । डा. वाल्टर सुबिंग (Dr. Walter Schubring) के शिष्य डा० डेनेक (Dr. Denecke) ने डा० पिशेल (Dr. Pischel) द्वारा परिकल्पित जैन शौरसेनी नाम को अनुपयुक्त बताया है । उन्होंने उसे "दिगम्बरी भाषा कहना अधिक उपयुक्त समझा है। डा० ए० एन० उपाध्ये आदि विद्वान् इसे ठीक नहीं मानते। बात ऐसी ही है, यदि दिगम्बर लेखकों द्वारा अपने ग्रन्थों का इस भाषा में लिखा जाना इसके 'दिगम्बरी भाषा' कहे जाने का पर्याप्त हेतु है, तो वह अव्याप्त है, क्योंकि दिगम्बर विद्वानों ने अपने धर्म का साहित्य कन्नड़ तथा तमिल जैसी भाषाओं में भी तो रचा है, बहुत रचा है, जो उन भाषाओं को निधि है । अतः स्थूल दृष्ट्या जैन शोरसेनी नाम से इसे संशित करना अनुपयुक्त नहीं लगता। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी में देशी शब्दों के प्रयोग लगभग अप्राप्त हैं । कारण स्पष्ट है, वह भाषा उस प्रदेश में पनपी, विकसित हुई, जो द्रविड़ परिवारीय-भाषासमूह से सम्बद्ध है तथा देशी-शब्दों के प्रयोग-क्षेत्र से सर्वथा बाहर है। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषा-शौरसेनी द्रविड़ परिवारीय भाषाओं से प्रभावित नहीं हुई, इसका कारण उन (द्रविड़ परिवारीय) भाषाओं का ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान तथा वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से आर्य-परिवारीय भाषाओं से भिन्नता है। संस्कृत का प्रभाव उस पर अवश्य अधिक है। एक तो शौरसेनी का प्रारम्भ से ही संस्कृत से विशेष लगाव रहा है, वररुचि ने तो इसकी उत्पत्ति ही संस्कृत' से बतलाई है तथा दूसरे संस्कृत की अपनी प्रभावापन्नता है, जिसकी अन्ततः परिणति हम समन्तभद्र, पूज्यपाद, अनन्तवीर्य तथा अकलंक जैसे महान् दिगम्बर संस्कृत लेखकों में पाते हैं। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का यह संक्षिप्त विवरण है । स्थान, समय, स्थिति आदि के कारण विभिन्न कृतियों में भाषा के सन्दर्भ में कुछ भिन्नता या असहशता भी रही है, पर वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है । अस्तु, षट्खण्डागम की भाषा जैन शौरसेनी प्राकृत है । मूल सूत्रों तथा टीका की भाषा में जो यत्किचित् भिन्नता है, उसका उत्तर देश, काल एवं परिस्थिति के व्यवधान में स्वयं खोजा जा सकता है । 1. Comparative Grammar of the Prakrit Languages, Page 20-21 २. प्रकृति : संस्कृतम् । -प्राकृत-प्रकाश १२.२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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