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________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वार मय [६७१. যৗব্দনী ধাক্কন ী গথ বিশ্বনাথ शौरसेनी प्राकृत की निम्नांकित मुख्य विशेषताएं हैं । इसमें मध्यवर्ती क के स्थान पर ग, क के स्थान पर द् तथा थ् के स्थान पर , होता है। घर्तमान काल प्रथम पुरुष एक वचन क्रिया में 'वि' लगता है। पूर्वकालिक क्रियात्मक अव्यय में प्रायः उम, तु एवं 'दूण' प्रत्यय का प्रयोग होता है। उपसंहारात्मक समीक्षा मागम-साहित्य एवं त्रिपिटक-साहित्य पर भाव, भाषा, शैली की दृष्टि से यथोचित दिग्दर्शन सम्बन्धित सन्दों में कराया जाता रहा है । शब्द-साम्य व उक्ति-साम्य आदि नाना स्फुट विषय बनते हैं, जिन पर पृथक्-पृथक् रूप से शोध-कार्य किया जा सकता है। प्रस्तुत खण्ड की महाकायता को देखते हुए इतना विस्तार में जाना समुचित नहीं होगा। विषय का प्रारम्भ मात्र मैं यहां कर देना चाहता हूं ताकि पाने वाली पीढ़ी उसे और विस्तार दे सके । मेरे लिए यह कार्य तीसरे खण्ड में भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका विषय भी मुख्यतः प्रकरण-साम्य ही रहेगा, जो अपने आप में प्रथम दो खण्डों के समकक्ष होगा। पिटक-शास्त्र के अर्थ में पिटक शब्द दोनों ही परम्पराओं ने अपनाया है। वह ज्ञान-मंजूषा गणी तथा प्राचार्य के लिए है, इसलिए उसे गणिपिटक कहा गया है । गणी शब्द का प्रयोग महावीर, बुद्ध आदि तात्कालिक धर्म-प्रवर्तकों के अर्थ में भी बौद्ध परम्परा में मिलता है। हो सकता है, पंघनायक भगवान् महावीर से उद्भूत वाणी के अर्थ में ही जैन परम्परा ने गणिपिटक शब्द को अपनाया हो । निगंठ—इस शब्द का अर्थ है-निर्ग्रन्थ । तात्पर्य है-अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित । त्रिपिटकों में जैन सम्प्रदाय को निग्रंन्थ-सम्प्रदाय, भगवान् महावीर को निर्गन्ध ज्ञातपुत्र स्थान-स्थान पर कहा गया है। जैन श्रमणों को भी निर्ग्रन्थ कहा गया है । उक्त १. संयुत्तनिकाय. दहर सुत्त (३.१-२), पृ०६८, दीघनिकाय, सामञफल सुत्त, १/२, सुत्तनिकाय, समीय सुत्त, पृ० १०८ से ११० आदि ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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