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________________ भाषा और साहित्य j शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय ५६६ "राजा बहुत बड़े आडम्बर के साथ साधुओं को वन्दन करने चला । उसने दूर से ही साधुओं को देखा । उसे बड़ा अचरज हुआ। यह क्या निर्वस्त्रता-नग्नता शून्य कोई नया मत है, जिसके साधु पात्र, दण्ड आदि धारण किये हुए हैं ? इनके पास जाना समुचित नहीं है। राजा वहां से लौट चला । अपने महल में आया। उसने महारानी से कहा कि तुम्हारे गुरु कुमार्ग-गामी हैं । उनका प्राचार जिन-प्ररूपित सिद्धान्तों से बहिर्भूत दर्शन पर आधृत है । वे परिग्रह में फंसे हुए हैं । हम उन्हें नहीं मानते।'' "महारानी ने राजा के मन का भाव समझ लिया। वह अपने गुरुवृन्द के सान्निध्य में उपस्थित हुई, उन्हें नमन किया। विनय से अपना मस्तक झुका कर निवेदन कियाभगवन् ! मेरे आग्रह से (वस्त्र, पात्र आदि की) आसक्ति का त्याग कर पवित्र, देववन्दित, निर्ग्रन्थ-निर्वस्त्र मुनि का स्वरूप धारण करें।" बुद्धिसागर नामानमत्रं षोल्लातुमावरात । आसाद्याऽसौ गुरुन भक्त्या प्रवरप्रश्रयान्वितः।। भूयोऽभ्यर्थनयाजमात्यः पत्तनं निजमानयत् । निशभ्यागमनं तेषां मुदमाप परां नृपः ॥ -भद्रबाहचरित्र परिच्छेद, ४.१४०-४३ १. महताडम्बरेणासावचालीद वन्वितु गुरुन् । बूरावालोक्य तानू साधून वध्यादिति सुविस्मयातू॥ अहो ! निर्गन्यताशून्यं किमिवं नौतनं मतम् । न मेऽत्र युज्यते गन्तुं पानवण्डाविमण्डितम् ॥ व्याधुट्य भूपस्तस्मादागत्य जिनमन्दिरम् । भाषते स्म महादेवी गुरवस्ते कुमार्गगाः ।। जिनोबितबहित-वर्शनाश्रितवृत्तयः । परिग्रहपहप्रस्तान्नतानू मन्यामहे वयम् ॥ -बही, ४.१४४.४७ २. सा तु मनोगतं राज्ञो ज्ञात्वाऽगाद गुरुसन्निधिम् । नस्वा विज्ञापयामास विनयानतमस्तका ॥ भगवन ! मवाग्रहावेतां गृहणीताऽमरपूजिताम् । निर्गन्यपववीं पूतां हित्वा संगं मुदाखिलम् । -बही, ४.१४८-४९ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002622
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherArhat Prakashan
Publication Year1982
Total Pages740
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Literature
File Size14 MB
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