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५६४॥ आगल और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:३
"उन साधुओं ने रानी का विज्ञ-जनोचित कथन स्वीकार कर वस्त्र आदि सारे परिग्रह का तत्क्षण त्याग कर दिया । श्वेत वस्त्र धारण करने वाले उन साधुओं ने हाथ में कमण्डल तथा जिन-मार्गोंचित पिच्छिका धारण की । यों उन्होंने जिन-मुद्रा-दिगम्बर मुनि का वेष स्वीकार कर लिया।
तब राजा अत्यधिक आदरपूर्वक उनके सामने आया । भक्तिपूर्वक नमन किया तथा उन्हें नगर में ले आया। इस प्रकार वे साधु राजा से तथा अन्यान्य लोगों से पूजित तथा सम्मानित हुए । उनका रूप दिगम्बरों जैसा था तथा आचार श्वेताम्बरों का-सा । गुरुउपदेश बिना वे नट की तरह दिगम्बर-स्वरूप धारण किये हुए थे। उन कुमार्ग-गामियों से यापनीय संघ उद्भूत हुआ।"1
रत्ननन्दी ने यापनीयों को वेष से दिगम्बर तुल्य, पर प्राचार से श्वेताम्बरवत् कहकर श्वेताम्बर-मत का एक विकृत रूप लिए हुए बताया है । उनके अनुसार वे साधुत्व के मूल आधार-आचार से विरहित हैं, केवल परिवेश में दिगम्बरत्व का प्रदर्शन है ।
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इन्द्रनन्दी (ई० ११ वीं शताब्दी ) ने नीतिसार में पांच प्रकार के जैनाभासों का उल्लेख किया है, जिनमें गोपुच्छक, श्वेताम्बर, द्रविड़, निष्पिच्छक तथा यापनीय का
१. उपरीकृत्य ते राज्या वचनं विषाचितम् ।
तत्यजुः सकलं संगं वसनादिकमञ्जसा ॥ करे कमण्डलु कृत्वा पिच्छिकां च जिनोदिताम् । जनहुजिनमुना ते धवलांशुकधारिणः ॥ विशांपतिस्ततो गत्वाऽभिमुखं भूरिसंभ्रमात् । नत्वातिभक्तितः साधून मध्ये. पत्तनमानयत् ॥ तवासिबेलं भूपाचंः पूजिता मानिताश्च ते । घृतं बिग्वाससा रूपमाचारः सितवाससाम् ॥ गुरुशिक्षातिगं लिगं नटवभण्डिमास्पदम् । ततो यापनसंघोऽभूतेषां कापयवर्तिनाम् ॥
-भत्रबाहुचरित्र परिच्छेव, ४.१५०-५४
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